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________________ २९४ ] मेरु मंदर पुराण इदयं चायेयं पोलिरंडुयिर् । निड्रन कंडिलं निकु काटिदु ॥ वंडियं चायें पोला निरंडुइर् । निड्र कुंडागिलुं निड्र दिल्लये ॥ ६८४ ॥ ॥ अर्थ- चंद्रमा की छाया के समान रहने वाले जीव को हमने देखा नहीं और छाया के समान जीव और शरीर रहता है ऐसा यदि कहोगे तो तुम्हारे द्वारा कहे जाने वाले दृष्टांत से इस तत्व का संबंध न होने से श्रापका मत सिद्ध नहीं होता ।। ६८४ ।। कडं कडं दोरा काय मदायव । डंबंडंबु तोरा मुई रौंड्र निल् ॥ कडंद कंदु ळि काय निलंकुमा । रुंडंबुडं दुळियं मुइर् निर्पदां ॥ ६८५ ॥ अर्थ- प्रत्येक पानी के पात्र में आकाश में रहने वाले चंद्रमा के दीखने के समान हर एक शरीर में उत्पन्न होने वाले सभी जीवों को एक ही है ऐसा कहेंगे तो उस घड़े के फूट जाने के बाद केवल आकाश ही रहता है । उसी प्रकार शरीर को छोड जाने के बाद उस आत्मा को रहना चाहिये था। परन्तु आपके मत के अनुसार यह नहीं घटता है । इस कारण आपके दिये जाने वाले उदाहरण से यह मत सिद्ध नहीं होता है ।। ६६५॥ Jain Education International कुडतुळं कुडमिड्र इरुंदमर् । ट्रिडत्तिनुं कविनुक्कियल पोत्तपो ॥ लुडंबुळ मुडविड्रि इरुंद वेव् । विsत्तिनु मुंहगेत्तिडल वेंडुमें ।। ६८६ ॥ अर्थ-घट में, घट से रहित पृथ्वी में यह प्राकाश प्रादि में समान रूप से रहता है । इस प्रकार आपके दृष्टांत के द्वारा सभी में रहता था, परन्तु रहता नहीं । इस कारण तुम्हारा मत संभवता नहीं ||६८६|| उडंबि मुइर तोळि लालुई । रुबि नुन्मं युनर् तिडुमत्तोळि || लडंगलं मिल्लावळी या रुइर् । तोडरंदु निड़ में सोल्लुव देन् कोलो ।। ६८७ ॥ अर्थ - शरीर से युक्त इस श्रात्मा के गुण प्रात्मा को ही मालूम होते हैं। शरीर की कोई पता नहीं पडता । शरीर भिन्न है, श्रात्मा भिन्न है। तथा शरीर जड है ।। ६८७ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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