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मेर मंदर पुराण
वनंत्तु मक्कन तोट्टर केट्ट पिन् । नेनेत मिल्नेब देते कोंडेत्तयो ॥६४६॥
__अर्थ-सर्वथा नित्य है । सर्वथा नित्यवादी कहने वाले की बात से उनके द्वारा किए जाने वाले व्यवहार में चलने वाली सभी क्रिया कैसे सभव होतो है। यदि वह नित्यवादी इस प्रकार नित्य कहने से वस्तु को देखकर या न देखकर कहता है । अथवा तुम्हारे कथन की पुष्टि करता है। यदि नित्य है तो व्यवहार बातचीत कैसे करते हैं । तुम स्वयं बोल रहे हो इसी बात से तुम्हारे नित्यवाद पने का खंडन हो रहा है ॥ ४६॥
करण करणंदोरुं तोमु केडुमाय । तनंदवे त्तत्वं निल इल्ले निर । कनकनंदोरु केट्टवन केटि नै । युनरंदु सोल्लमो विल्लयो उडनिल् ॥६४७।।
अर्थ-प्रतिक्षण में प्रत्येक वस्तु का उत्पाद व्यय ध्रौव्य कहा जाता है प्रत्येक वस्तु क्षण २ में परिणमन करने वाली है। इसलिए प्रत्येक वस्तु नित्यानित्य से युक्त है । और परिणमनशील ही सारी वस्तुएं है ऐसा भगवान के द्वारा कहे वचन हैं । यदि वस्तु का सर्वदा नास्तिकपना कहोगे तो वस्तु में भेद करके कैसे कह सकते हो? इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में सत्यासत्य, नित्यानित्य पाबहार चलता ही रहता है यदि इस प्रकार न चलेगा तो संसार का लोप हो जायेगा ॥६४७।।
प्रविदं वव्विळक्के इरुळे केड । शिवंदु नि रियु मेन शेप्पिना । निवंदु निहोर वन् सोलु मोंड्रिडि ।
लुवंद नित्तमु नित्तमु मुट्टि नान् ॥६४८।। अर्थ-जिस प्रकार दीपक कभी बडे प्रमाण में जलता है और अन्त में छोटे प्रमाण में होकर बुझ जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु बनती है और बिगडती है । ऐसा कहना क्षणिक बौद्धमत वालों का वचन है । जैसे दीपक के बुझने से उसका नाश हो जाता है वैसे प्रात्मा का नाश हो जाता है। ऐसा भरिणक मत बौद्ध धर्म वाले कहते हैं। यह बात पूर्वापर विरोध है ॥६४८॥
मायं व वन फंड वप्पोरुळं मनत् । तायं दु तोंड, मवन् सोलु मेडिडिन् । मायं व नंतर मनत्तेप्पोरलैंयु । मायंदु सोनु व दावदु मागुमे ॥६४६॥
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