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मेरु मंदर पुराण अर्थ-इस प्रकार तपश्चरण के द्वारा मुनि सिंहचन्द्र ने शरीर के क्षीण होने के साथ २ चारों आराधनाओं से चारों कषायों को क्षीण किया और अपनी शक्ति के अनुसार चारों प्रकार के आहारों में कमी करते हए अात्म बल को बढाया। और अात्म ध्यान के बल से दर्शन, ज्ञान, चारित्र की आराधना करते हुए तप आराधना की वृद्धि करने लगे। इस प्रकार तप आराधना के साथ २ शुद्ध आत्मा के ध्यान में निमग्न होते हुए इन्द्रिय तथा प्राणि संयम को निरतिचार पालन करने वाले हो गये ।।५४४।।
शित्तमै मुळिगळिर् सेरिंदु यिर्केला । मित्तिर नाय पिन् वेद नादि । लोत्तेळु मगत्तना युवगै युळ्ळलाय ।
तत्त वत तवत्तिनार् दनुवै वाटिनान् ॥५४५।। अर्थ तदनन्तर वह मुनि सिंहचन्द्र मन, वचन, काय से त्रस स्थावर जीवों की रक्षा करते हुए शुभाशुभ कर्म को उत्पन्न करने वाले, साता और असाता वेदनीय कर्मों के द्वारा उत्पन्न होने वाला सुख, दुख, हर्ष, विषाद में समता भाव धारण करने वाले होकर तपश्चरण स्वरूप को भली भांति जानकर दुर्द्ध र तपस्या में लीन रहने लगे ।।५४५।।
तिरुदि नार् तेऊ कंडेळुम नोसर पो। नरंबेला मेछंदन नल्ल मांदरी ॥ लरंगिन नयन मुळ्ळरुंद वक्कोडि ।
इरुंद मैं काटि निड्रिलगुं नीरवे ॥५४६॥ अर्थ-इस प्रकार वे मुनि दुद्ध र तप करने लगे। उनका शरीर अत्यन्त शुष्क होकर हड्डियों का पींजरा सा दीखने लगा। और उनकी प्रांखें तप के बल से अंदर घुस गई। देखने वाले भव्य जन उनका तपश्चरण देखकर विचार करने लगे कि साक्षात् मोक्ष व मोक्ष का मार्ग यही है । और हमको भी इनको देखकर, और इनके समान पाचरण करने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है-ऐसा भव्य जीव अनुभव करने लगे।।५४६।।
तवत्तळ ले©दुइराम पोट्रादु वै । तुवक्कर चुडचुड तोंड नो रोळि ॥ निवत्तला निट्रोळि तुळुबु मूर्तिया ।
नुवत्तलं कायदलु मोरवि नान् दरो॥५४७॥ अर्थ-इस प्रकार उनके शरीर के कृश हो जाने के बाद वह मुनि प्रात्मध्यान रूपी अग्नि से कर्म सहित आत्मा को जैसे स्वर्ण को बार २ तपा कर शुद्ध करते हैं उसी प्रकार अनादिकाल से प्रात्मा में लगे हुए कर्म रूपी मल को मुस में डालकर आत्मा की कीट कालिसा को क्रम से नाश करने लगे। तपश्चरण करते हुए उन मुनिराज ने केवलमात्र शरीर को. रखते हुए कषाय उत्पन्न होने वाले परिग्रह का त्याग कर दिया ॥५४७।।
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