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________________ wwwwwwwwwwwww-mommaa मेर मंदर पुराण [ २४३ अर्थ-वह भास्कर देव उस देव लोक में अत्यन्त सुन्दर देवांगना के पांव के नुपूर के शब्दों को तथा बोना, बांसुरी के शब्द व मधुर वचनों को सुनकर वचन प्रवीचार से अपने कामभोग को मानन्द सहित तृप्ति करते हुए स्वर्ग सुख का अनुभव करने लगा ॥५४॥ कोंद्र वन् पूर चंदन गुणक्कडं ट्रोंडि पोगि । मटुंद विमानत्तिन् कन् वैडूर्य प्रभ तन्नुट् ॥ पेट्रियार् ट्रोंडि तानु वैडूर्य प्रभनानान् । मुद्र, मुन्नुरत्त वायु मुदल विम्मुर्ति कामे ॥५४॥ अर्थ इधर पूर्णचन्द्र राजा सम्यक्दर्शन सहित निरतिचार व्रतों का पालन करते हुए समाधिमरण करके शुभ परिणामों से वैडूर्य प्रभा नाम के विमान में वैडूर्य प्रमा नाम का देव हुआ । पूर्व में कहे हुए भास्कर देव के समान हो उस वैडूर्य प्रभा की प्रायु भी उतनो ही थी। और उसी के समान वह भी विषयभोग में तृप्त वा ॥५४१॥ पाडलिन् मवांगयं पवळ बाईना। राडलिन् मयांगियु मरंबइ यारोडु ॥ माडम सोलयु मलयुं वावियु । यूडु पोय नीड वर बंदु बैगुनाळ ॥५४२॥ अर्थ-इस प्रकार भास्कर तथा वैडूर्य प्रभा दोनों देव उस लोक में गीत, वाद, नाट्य प्रादि क्रियानों को देखकर संतोष व प्रानंद मानने लगे। और स्त्रियों के साथ भोय भोगते हुए सुख से काल व्यतीत करने लगे ।।५४२॥ तूयचंदिरन कल पेरुग नाडोरु। तीयवत् काळगतेयुं मार पोइर् ॥ चीय चंदिरन् दुवं पेरुग नारो। कायमं कषाय, कश्षि मानवे ॥५४३॥ अर्थ-इधर सिंहचन्द्र मुनि महान उग्र तपश्चरण करने लगे। जैसे चंद्रमा को राह ग्रस्त करता है और राहु को छोडकर जाते ही चांदनी निर्मलता से फैल जाती है, उसी प्रकार सिंहचन्द्र मुनि के तपश्चर्या की प्रतिदिन वृद्धि होते हए उनका शरीर कृश होने लगा। शरीर के कृश होने के साथ २ लोभ, मान, क्रोध, मादि कषायें भी क्षीण हो गई ॥१४॥ ईदिळा रादन विदियि लेदरा। नादलु केद्र वारन पानमं॥ साद्रिय वगनार सुरुक्कि शेग्यमे । लेट्रिनान् दन्न निडिलंगुं सिबयान ॥५४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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