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________________ मेरु मंदर पुराण तनुवदु तनुवदाय तनुवदायदु । मननिरं पोरं तवं मगिच येदुव || निनैवदु विनs ने निंडू दिर्तदु । मुनिवनुं तनदु मेर् कोळिन् मुट्रिनान् ||५४८६ ॥ अर्थ -- उनका हृदय क्षमाभाव से युक्त हो गया। वे क्षमाभाव अभ्यन्तर तप की भावना से युक्त होकर प्रत्यन्त संतोष पूर्वक तपश्चररण करने में लीन हो गये || ५४८ || यरिई नुन् मोल्गिय देन्न दन्न दाय् । परिषैयें वेंडूव परम मा मुनि ॥ येरुगनं हृदय कमल तुळ्ळिरि इत्त । तेरिव शिद्धरै सेळि सेति नान् ||५४६ ॥ अर्थ - इस प्रकार अत्यन्त दुर्द्धर तपश्चरण के साथ २ बाईस परीषह को सहन बलिष्ठ हुए सिंहचंद्र मुनिराज वीतराग शुद्धोपयोग अपने हृदय कमल में धारण करके श्री सिद्ध पर करते हुए तथा जीतते हुए ग्रात्म बल से भावना से युक्त होकर प्रहंत परम देव को मेष्ठी को अपने मस्तक में स्थापित किया ||५४६ || Jain Education International सेनि ईलिडुं कवशत्तोडत्तिरम् । " पनरु पूवरु पांगि नाय पिन ॥ तन्नुंडंबु ईरिने तडरु वाळन । उनि वद मुनि योदिनान् ।। ५५० ॥ [ २४५ अर्थ - प्रपने हृदय में अर्हत, सिद्ध, आचार्य की स्थापना करके कर्म निर्जरा के लिये उनको शस्त्र रूप बना लिया । तदनन्तर पंच नमस्कार मंत्र का एकाग्रचित्त से मनन करने लगे । तब जैसे २ प्रत भगवान का ध्यान करने लगे वैसे २ अंकुर चमकने लगे और वैसे ही कर्मों की निर्जरा होने लगी ।। ५५० ।। कन्नि नार् कळंक मिन्नलयै कंडिडा । पन्तुर पेरियवरं पांद सेरं दव || पुन्निय युरदियै सेविइर् पूरिया । विन्नुल मडेंदनन् वेंडि वीरने ।। ५५१ ।। अर्थ - इस प्रकार उन सिंहचंद्र मुनि ने ध्यान करते हुए सम्यक्दर्शन और ज्ञान के चल से दोष रहित तत्वार्थ स्वरूप को भली भांति अपने अन्दर समझ लिया । और ग्रहंत भगवान के चरण ही मुझे शरण हैं और कोई शरण नहीं है—यह स्मरण करने लग गये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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