________________
२४६ ]
मेरा मंदर पुराण
"अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम । तस्मात् कारुण्यभावने, रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! ॥
अर्थात् इस पद के अनुसार भगवान के चरण ही मुझे शरण हैं, और कोई शरण नहीं है । भगवान का कहा हुआ सप्त तत्व, नवपदार्थ, पंचास्तिकाय, षट् द्रव्य प्रवचन मात्र का द्वादशांग शास्त्र यही मेरा शरण है, और कोई शरण नहीं है । ऐसा अन्त समय में स्मरण करते हुए वह सिंहचन्द्र मुनि समाधिपूर्वक मरण कर देवगति को प्राप्त हुआ ।। ५५१ ।।
पोरुविल उलगेनुं पुरवलकुं नर । किरिव माम् केवच्च दबदावदे || मरुविनान् मालोळि विमान मदिर । प्रितयंकरत्तिनै पेरिय वीरने ।। ५५२॥
अर्थ- वह मुनि समाधि पूर्वक शरीर को छोडकर नव वैयक नामक ऊपरी अत्यंत शोभायमान प्रीतंकर नाम के विमान में प्रीतंकर नाम का देव हो गया ।। ५५२ ||
Jain Education International
मुप्पत्तोराळियान् मुंडिद वायुग । मुप्पत्ती राईर तांडु विट्टुना ॥
पत्तोर् पक्कi कंडदुविर्तिडा ।
सुप्तोर् नान् गदि शयरें वाऴ्तुमे ।। ५५३ ।।
अर्थ - प्रीतंकर नाम के देव की आयु ३१ सागर की थी। वह देव इकत्तीस हजार वर्ष बीतने के बाद एक बार मानसिक आहार करता था । और १५३ दिन में एक बार श्वासोच्छवास लेता था । वह हमेशा अहंत भगवान के स्मरण में लीन रहता था ।। ५५३ ।।
प्रवधिया नरगमा रावदांदिडा ।
-
युवfव या वरुं पय नोंडू मिड्रिये ॥ शिवगति पवर्कु पोलिवकुं न बने । यवधिई नुदयत्ता लागु मिबमे ।। ५५४ ।।
अर्थ - वह प्रीतंकर अपने अवधिज्ञान से छठे नरक तक के हाल को जानता था । उनको स्त्रियों की कामेच्छा नहीं रहती । मोक्ष में रहने वाले प्रहमिंद्र देव के समान प्रात्म सुख का अनुभव करते हैं। और हमेशा यही भावना भाते रहते हैं
सिद्धर सतत विशुद्धर बोधस । मृद्धर नेनेदु नानीग । सिद्धरसद्रोन्यु लोहवनंहिददात्म | सिद्धियपडेवे निन्नेनु ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org