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________________ ६४ ] मेरु मंदर पुराण पेरुदन वळिय दागि पिरंगि मु वलग मुद्र। मारु कंदगटकादि त्यागिय दनुवदामे ॥८६॥ अर्थ-स्निग्ध परमाणु और रूक्ष परमाणु ऐसे दो प्रकार हैं। स्निग्ध परमाणु को स्निग्ध स्पर्श और रूक्ष परमारण को रूक्ष स्पर्श कहते हैं। उष्ण स्पर्श और रूक्ष स्पर्श ये दो प्रकार हैं । सुगंध दुर्गध में, पंचवणों में और पंच रसों में इन अणुओं को भिन्न २ जानने की शक्ति केवल अहंत भगवान् में ही है, अन्य में नहीं। इस प्रकार इस जगत में छह प्रकार के स्कंध अनादि काल से सदैव भरे हुये हैं। भावार्थ-सफेद, पीला, नीला, लाल और काला ये पांच वर्ण, चरपरा, कडुपा, कषैला, खट्टा और मीठा ये पांच रस, सुगंध और दुर्गंध ये दो गध तथा ठंडा, गरम, नरम, चिकना, रूखा, कठोर, भारी और हल्का, ये पाठ प्रकार के स्पर्श शुद्ध निश्चय से शुद्ध-बुद्ध स्वभाव धारक शुद्ध जीव में नहीं हैं। इस कारण यह जीव प्रमूर्तिक अर्थात् मूर्ति रहित है। शंका-यदि जीव अमूर्तिक है तो इसके कर्म का बंध कैसे होता है ? समाधान- अनुपरित असद्भूत व्यवहार नय से जोव मूर्तिक है । इस कारण कर्म का बंध होता है। शंका-जीव मूर्तिक किस कारण से है ? । समाधान-अनन्त ज्ञान प्रादि की प्राप्ति रूप जो मोक्ष है उसके विपरीत अनेक अनादि बंधन के कारण जीव मूर्तिक है। कथंचित् मूर्तिक और कथंचित् अमूर्तिक जीव का लक्षण है। कहा भी है कि "कर्म बंध के प्रति जीव की एकता है. और लक्षण से उस कर्मबंध की तथा जीव की भिन्नता है । इसलिए एकांत से जीव के अमूर्तिक भाव नहीं हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जिस प्रमूर्तिक प्रात्मा की प्राप्ति के प्रभाव से इस जीव ने अनादि संसार में भ्रमण किया है। उसी प्रमूर्तिक शुद्ध स्वरूप प्रात्मा को मूर्त पांचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग करना चाहिये ।।६।। करुमा नलपशय कायनोगमं । मरुविय पुलस वत्त भोगङ्कारण । मिरुळ वेत्योकि योलि निळनार मूतमाय । तिरिवुडै पुद्गलंदान जीयने ॥७॥ अर्थ-शानावरणादि जो पाठ कर्म हैं तथा धातु उपधातु प्रादि से युक्त यह पाच प्रकार का शरीर, नो कर्म वर्गणा से पांच इन्द्रिय मिश्रित होकरं नो इन्द्रिय आदि विषय को उत्पन्न करने वाली और भोगोपभोग वस्तु का कारण होने वाली तम, छाया, प्राताप, प्रकाश शब्द, पृथ्वो, आग्न, तेज, वायु प्रादि परिणाम को उत्पन्न करने वाली पुद्गल वर्गणा है। अथात् जितना भी पोछे वर्णन कर चुके हैं वे सभी पुद्गल के भेद हैं, प्रात्मा के नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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