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मेरु मंदर पुराण
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ऐसी २ निधियां हैं। इन दोनों निधियों के अधिपति वहां के देव हैं। वहां रहने वाली उदयतर वेदी इतनी ऊंची है कि मानो हिमवन पर्वत ही यहां श्रा गया है, ऐसा प्रतीत होता था । उससे दुगुनी ऊंची पांच सौ धनुष वाली प्रीतंकर नाम की पांच वेदियां है ।।१०७१ ॥
कोडि मिडंगोपुरंग ळोंगिन नांगु गात ।
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मिडि मुरसि द्यव वानो रियटू मंजिर प्यो येयं ॥ पडि मेगळिद पंच निकगंळे पुडेय बोर् ।
कुडमुगं पदमम् तेमाग़ोंत्तन कोनंदाने ।। १०७२ ।।
अर्थ -- उस प्रीतंकर वेदी के कौने में अधिक से अधिक प्रकाशमान ऊंची ध्वजाओं से युक्त चार गोपुर हैं । वे गोपुर चार कोस उत्सेध वाले हैं। जिस समय वहां देवलोग भगवान को पूजन करते हैं उस समय मेघ की गर्जना के समान अनेक प्रकार के वाद्यों की ध्वनि होती है | भगवान के अभिषेक के लिये बडे २ सोने के घड़ों को थहां स्थापित करते हैं और उन घडों पर सोने तथा पुष्पों की मालाएं व पल्लव आदि से उन घडों को सुशोभित करते हैं ।
।।१०७२।।
गोपुर तिरु मरुंगुम कुडवरं यनय तोळार । पागर प्रम पोळ पडरोळि भवनवेंदर् ॥ नागरु किरैवर् कोमानळं पुगक् द ळगंळारं ६ । वेदिरं पिडित्तु काकुं पुरत्तुकार कोडिइन वीदि ॥ १०७३॥
अर्थ-उन गोपुर के द्वारों पर अस्ताचल पर्वत के समान भुजाओं वाले सूर्य के प्रकाश से युक्त भवनवासी देवों के अधिपति चमर वैरचित नाम का भुवनेंद्र और देवेंद्र प्रादि के प्रधिपति जो देव हैं वे भगवान की स्तुति व गुणगान करते हुए अपने हाथों में दण्ड तथा घोटों मादि को धारण कर खड़े रहते हैं । उन गोपुर के अन्दर के भाग में जो ध्वजा भूमि है वह पांचवें प्रकार की महावीथी कहलाती है ।। १०७३ ।।
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ऐदुंबीर चरमगि पायिर तेंवदाय । पंदिइन् वरुक्क माय मंडलं पत्तिनु भाग || fnfra तिरट्ट येr दिक्किनु कामि बटुं । मंगल तनिन् मार वंदन पंदिन मीत || १०७४ !!
अर्थ- पांच प्रकार नाम की महावीथी के कौने में अर्थात् एक २ कोने में चतुष्कोण के रूप में क्रम रूप से एक हजार अस्सी, एक हजार अस्सी इस प्रकार दो हजार अस्सी प्रौर अस्सी पंक्तियां हैं । इन सब को मिलाकर गिनती करने से ग्यारह लाख, साठ हजार चार सौ हो जाती हैं । यह संख्या एक २ कौने की है। चारों कौनों में रहने वालों की संख्या छियालीस लाख, पैंसठ हजार छह सौ मेखला होती है ॥ १०७४ ।।
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