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मेरु मंदर पुराण
[ ४१६ मूंड, विट्ट शदुर मागि मुकुमरिण पीडत्तुच्चि । यूड़ि विल्लेरंडु सुद्रा युरंदिर कांद पयं बु । नीड्वे पोड़, कन्निनेकिन मरिण इरंद तंडि ।
नांड पल्लिगे इनुच्चि पळग मेळ् पदाग यामे ॥१०७५।। अर्थ-तीन धनुष प्रमाण से युक्त रहने वाले चतुष्कोण की पीठ के ऊपर दो धनुष चारों ओर दो कोस उत्सेध वाले हैं। इनसे वह पीठ देखने में अत्यन्त सुन्दर व शोभायमान मालूम होती है । और उस पीठ पर एक फलक है ।।१०७५॥
शिंग मालियाने माल शिरिवयन्नं गरुड नेरु । पंकय मगर माळि पविगळास पदाग पत्तुं ॥ पोंगिया काय मेन्तुं पुनरि वेडिरै गळ् पोलुं।
मंगलक्किळ वन् कोइल् मदिल सूळं दाडु निड़े ॥१०७६॥ अर्थ-सिंह. हाथी. फलों का हार, मयर. हंस पक्षी, गरुड, वषभ, कमल पृष्प, मगरमच्छ व समुद्र मादि इस प्रकार के लक्षणों से युक्त पाठ प्रकार को ध्वजाए समुद्र से उठने वाली जलतरग के समान जिनेंद्र भगवान के समवसरण के प्रागे वेदी के चारों ओर ध्वजाएं फहराती हैं ॥१०७६।।
मुडिमरिण मुत्त माल नानं . किंकिनि गळ मोइत्त । कोजि निरै कोडि नांगो उरुपत्ता रिलक्कं कोमा । नुड यन वै वत्तारा इरमुंडि लुलावुगिड़।
परियितु काद मूंड्राय पयोदि पोर् सूळं ददामे ॥१०७७॥ अर्थ-उस ध्वजास्तंभ के शिखरों में मोती के हार नृत्य करने वाली नर्तकियों के पावों में पैजनी के समान छोटी २ घंटियों सहित फहराने वाली ध्वजारो की संख्या चार करोड छियासठ लाख पचपन हजार है। यह भूमि तीन कोस चौडी होकर समवसरण को घेरे हुए है ।।१०७७॥
पलभरिण पई पत्ति पित्ति न पडिगम पैवोन् । निलंगळे दागि निड़ नाटक शाल दोहें।। मुलयु मेगलेयु मुत्तमालयं कुलाव मिन् पोर् ।
पल नई पैलुं भादरं भवन तम् पवळ वायार ॥१०७८॥ अर्थ-वहां अनेक प्रकार के रत्नों से निर्माण को हुई बार प्रकार की वेदियां हैं। उस वीपी में रहने वाली नृत्य शालाए, मेखला भरण मोती प्रादि से युक्त भवन तथा देवांगनाएं नृत्य करती हैं ॥१०७८
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