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मेर मंदर पुराण
प्रादला लळिय दुरुदि युंडन । पोदुला मुडियनान् पुगळ दु भूमिक्कु ॥ नादनाय सपंदनेनाट्ट उट्रनन् ।
दादुला मलगंलान् ट्रानु नेर्दिन् ॥ ११९ ॥ इसलिये हे पिताजी ! प्राप इस क्षणिक राज्य के परिपालन करने की आज्ञा मत दीजिए। यह राज्य संपदा मुझे भी इष्ट नहीं है। इस बात को सुनकर राजा वैजयंत मन में अति आनंदित होकर ज्येष्ठ कुमार संजयंत की महान प्रशंसा करता है और लाचार होकर उस राज्य भार को सोंपने के लिये अपने छोटे राजकुमार जयंत को बुलवाता है । कुमार जयंत ने प्राकर पिताजी को नमस्कार किया और कहा कि पिताजी! क्या प्राज्ञा है? राजा ने कहा कि पुत्र! तुम इस राज्य भार को सम्हालो ।। ११६ ।।
परिविनार शिरिय नीरा रांडवर तांगळ सेंड। नेरिपिन पिळं क्क पोगिन् माट्रिड सुळल्वर नीड । मरुविला गुरणत्ति नोर्गळ माट्रिय वरसु मेविन् ।
नेरियिनार् गतिंगनागि निड़ यान् सुळल्व नेडान् ॥१२०॥ कुमार जयंत ने निवेदन किया कि पिताजी ! मैं अल्प ज्ञानी हूं, मुझ में ज्ञान नहीं है। और न इस राज्य की मुझे लालसा है । इस राज वैभव को दुखदाई मान कर उससे मुक्त होकर अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए आप मुनि दीक्षा लेकर तपश्चरण के द्वारा प्रखण्ड मोक्षलक्ष्मी रूपी राजपद पाने की इच्छा कर रहे हैं और यह क्षणिक राज वैभव नरक में ले जाने वाला मुझे सौंप रहे हैं! क्या यह बात उचित है ? नहीं। आप जिस मार्ग को स्वीकार कर रहे हैं वही मार्ग मुझको भी इष्ट है । इस प्रकार कुमार जयंत ने पिता से कहा ॥१२०।। - इस प्रकार वैजयंत,संजयंत और जयंत के वैराग्य भावना का विवेचन समाप्त हुआ।
वानतिन् । ळि ळ एल्लाल ब दिनु विरंबल सेल्ला। मानसैयुडय पुळि ळन् मैवेगळ मरुत्त मिर्प ।। कारण पोरेट्रिन पारम् कंडिन् मेलिट्टदेपोल ।
ट्रेणत्त मुडियै मन्नन् शिरुवन् दन् शिरवर् कीदान् ॥१२१॥ तदनंतर राजा वैजयंत ने अपने दोनों पुत्र संजयत और जयंत सहित राज्य भार को त्याग कर के अपने पौत्र वैजयंत का राज्याभिषेक किया और जिन दीक्षा के लिये तीनों चल पड़े।
जिस प्रकार चातक पक्षी मेघ की बून्द द्वारा अपनी प्यास बुझाने के लिये बादल की ओर ऊपर देखता है उसी प्रकार राजा वैजयंत और उनके दोनों पुत्र मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा करके स्वयम्भू भगवान के समवसरण में जाने के लिये प्रातुर हुए ॥१२१॥
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