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मेरु मंदर पुराण
[ ८३ ऋद्धि सहित सुख देवों में प्रधान है। परन्तु यथार्थ में वह पात्मिक तथा स्वाभाविक सुख नहीं हैं क्योंकि जब पंचेद्रिय पिशाच उनके शरीर में पीडा उत्पन्न करता है तब ही वे देव मनोग्य विषयों में गिर पड़ते हैं अर्थात् जिस प्रकार कोई मनुष्य किसी वस्तु से पीडित होकर पर्वत से गिरता है उस ही प्रकार इन्द्रिय जनित दुःखों से पीडित होकर उन विषयों में यह
आत्मा पीडित होता है। इसलिये यह इन्द्रिय सुख दुःखरूपी ही है । अज्ञान बुद्धि से सुखरूप मालूम पड़ता है । दुख के भी दो भेद हैं, सुख और दुःख । मनुष्य चारों गतियों में उत्पन्न होकर शरीर की पीड़ा को भोगते हैं तो जीवों का चेतन रूप परिणाम अच्छा बुरा कैसे हो सकता है, ऐसा कभी नहीं हो सकता। इसलिये हे कुमार संजयंत ! पाप और पृण्य यह दोनों दुख के कारण हैं। और ये ही दुख चारों गति के कारण हैं। प्रात्मा के सुख के भागे कोई । शाश्वत सुख नहीं है ।।११६।।
तोड्रि माइंदुलग मुंडि ट्रयरैदु मुइगडमै। ईड्रताय पोल बोंबि बत्त ळिरुत्ति नादन् । मूंड लगिक्कु माक्कि मुडिविला तन्म नळ गु । मांड नल्लरत्तै पोलु मरिय दोड्रिल्लै येंड्रान् ॥ ११७ ॥
हे कुमार संजयंत ! जन्म-मरण रूप से युक्रा इस तीन लोक में दुख भोगने वाले जीवों को जिस प्रकार माता अपने बच्चे का रक्षण करती है उसी प्रकार माता के रूप में धर्म, देवलोक, चक्रवर्ती आदि इन्द्रिय सुख इस जीव को देकर अन्त में मोक्ष फल को दिला देती है। ऐसे जैन धर्म के सिवाय और कोई परम रक्षक नहीं है ।।११७॥
अरियदु तिरुवरमल्ल दिल्लैयेत् । मरुविय तिरुवर मोरुवि मन्नना ॥ युरुगळ मुडिग कवित्त लग माळ बदु । पेरुयिल मरिणइन पिडिक्कीवदे ।। ११८ ।।
इस प्रकार संजयत धर्म के स्वरूप को अपने पिता के मुख से सुनकर इस लोक, में जैन धर्म के अतिरिक्त और कोई धर्म नहीं है ऐसा निश्चय करके कहने लगा कि-हे पिताजी! मैं फिर ऐसे सख शान्ति के देने वाले पवित्र जैन धर्म को छोड कर अनेक दुखों से भरे हुए संसार के कारणभूत होने वाले शरीर तथा क्षणिक राज भोगों को भोग कर नरक गली की ओर खींचने वाले ऐसे क्षणिक राज सुख को मैं क्यों ग्रहण करू? मैं इसे ग्रहण नही करूगा ; क्योंकि जिस प्रकार तिल को घाणी में पेल कर उसका तेल निकालने के बाद केवल खल भाग रहता है उसी प्रकार अनादि काल से राजा महाराजा इस क्षणिक संसार सुख को छोड़ कर चले गये। अब ऐसे संसार के सुख को भोगने वाला क्या मूर्ख नहीं है ? अतः मैं मूर्ख नहीं हूं। जस मोक्षरूपी राज की आप इच्छा कर रहे हैं वह सुख मुझे भी चाहिये, ऐसे क्षणिक सुख की मुझे चाह नहीं है ।। ११८ ।।
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