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मेरु मंदर पुराण
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अरुविले पट्ट विट्ट वरस नाल् मुनिय पट्ट । परिसनं पोल चाय इळंदु पोय वीळ्द वंड्रे ॥७३२॥
अर्थ-तदनन्तर उन मुनिराज ने "तथास्तु" कहकर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार किरणवेग को जिन दीक्षा की अनुमति दे दी। उसने अपने मस्तक पर रहने वाले मुकुट, छत्र, चांद तथा अन्य २ वस्त्राभूषण आदि को जिस प्रकार एक राजा क्रोधित होकर अपने शत्रु राजा को अपनी हद से बाहर निकाल देता है , उसी प्रकार सारे अलंकारों को उतार कर फेंक दिये और कानों में कुण्डल रत्नों, के हार उतार कर अलहदा रख दिये ।।७३२॥
कुंदळमागि नोलं कुळंड्रेलूंद नैय कुंजि । मंदिर पदंगळ् सोल्लि धन्. कंयाल वांगु मेल्ले ॥ येंडर करणं शिद कौवळि यळय दाग ।
विदिय सिरगु वीळ्दं परवं पोलेछंद वेगं ॥७३३॥ अर्थ-तत्पश्चात् हरिचन्द्र मुनिराज ने राजा किरण वेग को पूर्वमुखी बिठा कर शास्त्रानुसार विधि व मंत्र पूर्वक प्राचार्य भक्ति, सिद्ध भक्ति आदि को पढकर "ॐ नमः सिद्ध भ्यः" ऐसा बोलकर सिद्ध भगवान को नमस्कार किया और अपने हाथों से पंचमुष्ठि केश-लुंचन किया। केश-लुंचन करते समय जिस प्रकार पक्षी के पंख उखाड कर फेंकते समय वह पक्षी भाग नहीं सकता उसी प्रकार पंचेन्द्रिय विषयों के सुख को त्याग कर वे केश-लुंचन करके मन में स्थिर हो गये ॥७३३ ।
दंडिने कोवित्तादि वरुमात्तिन् वळिय नागि। विडं गारवंयळ वेय्य परिशय वेंडू.वीरन् । मुंड मोरैदा दोडि मुनिमै इर् दृनिय नागि ।
दंडुळि मुगिलिर सेल्लुं चारणतन्मै पेट्रान् ॥७३४॥ अर्थ-वे किरणवेग मुनि मन,वचन और काय ऐसे तोन दड को त्याग कर आत्मभावना में लीन हो गये और पुनः उत्तम क्षमादि दस धर्मों का पालन करते हुए, रसगारव, ऋद्धिगारव, और सात गारद ऐसे तीनों गारवों को त्यागकर क्षुत्पिापासादि परीषह को जीतकर दस प्रकार के मुंडनों से युक्त होकर आकाश में जैसे मेघ समह जाते हैं, उसी प्रकार उन्होंने आकाश में गमन करने वाली चारण ऋद्धि प्राप्त कर ली ।।७३४।।
तिरिविद योगु तागि तिरिव दोर शिगरि पोल । मरुविय कोळगै नींगा मादवर् मरुळ चल्वान् ॥ फरि यर शदन पोल कांचन कुगये सें । करिइळ वेरु पोल बरुंदव निरुंद नाळाल् ॥७३॥
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