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मेरु मंदर पुराण
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अनाकार प्रविकल्प उपयोग कहलाता है। जीव, प्राणी, जन्तु, क्षेत्रज्ञ, पुरुष, पुमान्, आत्मा. अन्तरात्मा और ज्ञानी ये सब जीव के पर्यायवाची शब्द हैं । चूंकि यह जीव वर्तमान काल में जीवित है, भूतकाल में भी जीवित था और अनागत काल में भी अनेक जन्मों में जीवित रहेगा । इसलिये इसे जीव कहते हैं । सिद्ध भगवान् अपनी पूर्व पर्यायों में जीवित थे इसीलिये वे भी जीव कहलाते हैं। पांच इन्द्रिय, तीन बल आयु और श्वासोच्छवास ये दश प्रारण इस जीव के पास विद्यमान रहते हैं इसलिये प्राणी कहलाता है । यह बारम्बार अनेक जन्म धारण करता है, इसलिये जन्तु कहलाता है । इसके स्वरूप को क्षेत्र कहते हैं और यह उसे जानता है, इसलिये क्षेत्रज्ञ कहलाता है । पुरु अर्थात् श्रच्छे-अच्छे भोगों में ज्ञान प्राप्त करने से यह पुरुष कहलाता है । अपने आत्मा को पवित्र करने के कारण पुमान कहलाता है । यह जीव नर-नारकादि आठ कर्मों के अन्तर्वर्ती होने से अन्तरात्मा भी कहलाता है । यह जीव ज्ञान गुण से सहित होने से ज्ञेय अथवा ज्ञानी कहलाता है । इस प्रकार यह जीव उपरोक्त पर्यायवाची शब्दों के समान अन्य अनेक शब्दों से जानने य.ग्य है । यह जांव नित्य है, परन्तु उसकी नर-नरकादि पर्याय पृथक् पृथक् है । जिस प्रकार नित्य होने पर भी पर्यायों की अपेक्षा उसका उत्पाद और विनाश होता रहता है उसी प्रकार यह जीव नित्य है, परन्तु पर्यायों की अपेक्षा उसमें भी उत्पाद और विनाश होता रहता है ।
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भावार्थ - द्रव्यत्व सामान्य की अपेक्षा जीव द्रव्य नित्य है और पर्यायों की अपेक्षा अनित्य है । एक साथ दोनों अपेक्षाओं से यह जीव उत्पाद व्यय और ध्रौव्यरूप है । जो पर्याय पहले नहीं थी उसका उत्पन्न होना उत्पाद कहलाता है, किसी पर्याय का उत्पाद होकर नष्ट हो जाना व्यय कहलाता है और दोनों पर्यायों में तद्वस्तु होकर रहना धौव्य कहलाता है । इस प्रकार यह आत्मा उत्पाद ब्यय तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणों सहित है ऊपर कहे हुये स्वभाव से युक्त श्रात्मा को नहीं जानते हुये मिथ्या दृष्टि पुरुष उसका स्वरूप अनेक प्रकार से मानते हैं और परस्पर में विवाद करते हैं । कुछ मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि आत्मा नाम का पदार्थ ही नहीं है, कोई कहता है कि वह अनित्य है, कोई कहता है कि वह कर्ता भोक्ता नहीं है कोई कहता है कि प्रात्मा नामक पदार्थ है तो सही, परन्तु उसका मोक्ष नहीं हैं और कोई कहता है कि मोक्ष भी होता है, परन्तु मोक्ष प्राप्ति का कुछ उपाय नहीं है । इसलिये आयुष्मन्. हे वैजयन्त ! ऊपर कहे हुये इन अनेक मिथ्या नयों को छोड़कर समीचीन नय के अनुसार जिसका लक्षण कहा गया है ऐसे जीव तत्व का तुम निश्चय करो। जीव की दो अवस्था मानी गयी है । एक संसारी और दूसरा मुक्त (मोक्ष) । नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चार भेदों से युक्त संसार रूपी भवर में परिभ्रमण करना संसार कहलाता है और समस्त कर्मों का बिल्कुल क्षय हो जाना मोक्ष कहलाता है । वह मोक्ष अनन्त सुख स्वरूप हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप साधन से प्राप्त होता है । सच्चे देव, शास्त्र और समीचीन पदार्थ का बड़ीं प्रसन्नता पूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है। यह सम्यग्दर्शन मोक्ष प्राप्ति का प्रथम साधन है । जीव, अजीव आदि पदार्थो के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करने वाला तथा अज्ञान रूपी अन्धकार को परम्परा से नष्ट हो जाने के बाद उत्पन्न होने वाला जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समता भाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं । वह सम्यक्चारित्र यथार्थ रूप से तृष्णा रहित मोक्ष की इच्छा करने वाले, वस्त्र रहित और हिंसा का सर्वथा त्याग करने वाले मुनिराज को ही होता है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान भौर सम्यक्चारित्र ये तीनों
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