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________________ मेह मंबर पुरीरंग [ दर्शनमय है और समस्त मोहनीय कर्मों के नाश होने से स्थिर होकर प्रपने स्वभाव को प्राप्त हो गये हैं । इस प्रकार भगवान् के वचन व गुणों पर भक्ति व श्रद्धा रखने वाले जीव संसार दुर्लभ हैं ।। ६६ ।। पेंड्र निड्रिरे वने एसि मादव । तोंद्रिय यनत्तना लग नावनै ॥ निड्र तब नोम पेन । कुनार करुळिनान् कुट्रमटू कोन् ॥ ६७॥ अथ - इस प्रकार भक्ति सहित भगवान् के सन्मुख खड़ा होकर पूजा भक्ति तथा उनके गुणों का स्मरण किया और ऐसा करने से मन में वैराग्य तथा तपश्चरण की भावना उत्पन्न हुई। राजा वैजयन्त भगवान् से इस प्रकार प्रार्थना करता है कि हे त्रिलोकीनाथ ! इस लोक में सदैव रहने वाले चराचर जीव किस प्रकार के हैं तथा उनका क्या स्वरूप है ? इस प्रश्न को सुनकर स्वयम्भू तीर्थंकर ने सकल चराचर वस्तु तथा जीवाजीव पदार्थ के स्वरूप को समझाने लगे । भावार्थ- नाम कर्म के उदय से उसे जितना छोटा-बड़ा शरीर प्राप्त होता है वह उतना ही संकोच विस्तार रूप हो जाता है। उस जीव का अन्वेषण करने के लिये गति प्रादि site मार्गणात्रों का निरूपण किया गया है । इसी प्रकार चौदह गुणस्थान और सत्संख्या भादि अनुयोगों के द्वारा भी वह जीव-तत्व अन्वेषरण करने के योग्य है । भावार्थ - भागरणाओं, गुणस्थानों, सत्संख्या और अनुयोगों द्वारा जीव का स्वरूप समझा जाता है । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, woयत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और श्राहारक ये चौदह मार्गणा स्थान हैं। इन मागंणा स्थानों में सत्संख्या श्रादि विशेष रूप से जीव का अन्वेषण करना चाहिये । और उसका स्वरूप जानना चाहिये । सिद्धान्त शास्त्र रूपी नेत्र को धारण करने वाले भव्य जीवों को सत्संख्या, क्षेत्र स्पर्शन काल भाव, अन्तर, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगों के द्वारा जीवतत्त्व का प्रन्वेषण करना चाहिये । इस प्रकार जीवतत्त्व के ये उपाय हैं। इनके सिवाय विद्वानों को नय और निक्षेपों के द्वारा भी जीवतत्व की जानकारी कर लेनी चाहिये। उसका स्वरूप जानकर दृढ़ प्रतीति करनी चाहिये । श्रपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, प्रौदायिक प्रौर पारिणामिक ये पांच भाव जीव के निज तत्त्व कहलाते हैं । इन गुणों का जिसके द्वारा निश्चय किया जावे वे जीव कहलाते हैं। उस जीव का उपयोग ज्ञान प्रौर दर्शन भेद से दो प्रकार का होता है इन दोनों प्रकार के उपयोगों में से ज्ञानोपयोग प्राठ प्रकार का और दर्शनोपयोग चार प्रकार जानना चाहिये । जो उपयोग साकार है अर्थात् विकल्प सहित पदार्थ को जानता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं और जो प्रनाकार है, विकल्प रहित पदार्थ को जानता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं। घट-पट आदि की व्यवस्था लिये किसी के भेदकरण करने को प्रकार कहते हैं । और सामान्य रूप से ग्रहण करने को अनाकार कहते हैं । ज्ञानोपयोग वस्तु को भेदपूर्वक ग्रहण करते हैं । इसलिये वह साकार सविकल्प उपयोग कहलाता है और दर्शनोपयोग वस्तु को सामान्य रूप से ग्रहण करता है, इसलिये वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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