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________________ ५०४ ] मेर मंदर पुराण पाइर् कणि नान यदि बदि याग चूळं दु । माइरं विशुंबुम् मण्णु मरैय् वानवर्गळ वंदार ।।१३८६।। अर्थ-उस समय केबलज्ञान के अतिशय से देवों के पास न कंपायमान हए । देवों ने अवधिज्ञान से जान लिया कि मेरू और मंदर दोनों को केवलज्ञान हो गया है। तभी सभी देव पुष्प वृष्टि, जय २ कार आदि करते हुए सपरिवार प्रागए ।।१३८६।। मुळंगिन मुरसमेंगुस मुरंड्रन शंग मुन्ने । ये दन रेरु शीयं यानं मावेरि विन्नोर ।। निळूद पूमारि विन्ने विळुगिन पदार्ग वेळळ । मेळंद वेत्तारवं कीति ईयंबिन काळ मेंगुम् ।।३१८७॥ अर्थ--उस समय भगवान के के बलज्ञान का अतिशय चारों ओर फैल गया था। और देव दुंदुभि, शंख, पटहा आदि बजने लगे। तब देव अपने २ वाहनों पर बैठ कर भगवान के केवलज्ञान कल्याणक की पूजा मनाने के लिए धवल छत्र, ध्वजाओं को धारण कर आगए । १३८७ । अरवं यर् नडंपुरिदा रंबर मरगंमाग। नरं पोलि पोलिद वेंगु नन्निनार मन्नै विन्नोर ॥ करंगळु कुविदं कन्निर् पुळिदन घातिनान्मै । युरं कडिदिरुंद वीररुरु तुन येडि पनिंदार ।।१३८८॥ अर्थ-उस समय में देवाङ्गनाए आकाश में नृत्य करती थीं। उनके द्वारा बजाए गए वाद्यों की ध्वनि तथा संगीत के मधुर शब्द सुनाई देते थे। मध्यलोक में रहने वाले सभी जीव अपने दोनों हाथों को कमल के समान जोड कर आनंदाश्रु सहित भगवान के दर्शन कर रहे थे ॥१३८८॥ पिडि कुडयुं शीय वनडे शामरयु म। मंडवर किरय मैत्तानन्नवर् कुरिय वाट्रा॥ लुंडर वमिर्दस् वंदिगुण मिनेन नोलित्त वूळि। कंडवर कळले वाति काम कोडनग निड्र ॥१३८६।। मर्थ-अशोक वृक्ष, सुरपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, छत्र, सिंहासन, धवल चंवर, दुंदुभि तथा भामंडल इन पाठ प्रतिहार्यों को देवों ने निर्माण किया उस समय भगवान की दिव्यध्वनि प्रगट हुई। तब केवली भगवान कहने लगे कि हे संसारी भव्य जीवो ! सुनो। इस प्रकार अनंत चतुष्टय (ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य) से मंडित मानों भगवान स्वयं ही संबोधन कर रहे हों ऐसा मालूम पडता था। इस प्रकार उनके मुखारविंद से निकली हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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