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________________ मेरु मंदर पुराण [ ५०५ दिव्यध्वनि चारों दिशाओं में फैल रही थी। इस प्रकार सभी उपस्थित भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग का उपदेश मिला। उसे सुनकर सभी आनंदित हुए ।। ३८६।। मंदर मिरंडे चळं द धातकी मलमळ पोल । विदिरर विज वेंदर मन्नव रेणे योगळ ।। सुंदर मलरुं सांदुं दूपमुं मेंदिमेरु । मंदर नामर् पादं पनिंदु वाळ्तोडेळधार ।।१३६०।। अर्थ-तत्पश्चात् जम्बूद्वीप, धातकीखंड, पुष्कर ऐसे अढाई द्वीप में रहने वाले सुमेरु के चारों ओर कुलगिरि पर्वत के समान, शतेंद्र, विद्याधर राजा, भूमिपति इन सभी भव्यजीव आदि ने भक्ति पूर्वक भगवान की पूजा अर्चा आदि करके अंत में नमस्कार करके करबद्ध होकर स्तुति के लिये खडे हो गये ।। १३६।। वेरु कुरु तुयरोड विळवेळ तुयरु । करवुरु तुयरोडु कडेवरु तुरुं ।। मरुविय वुइर् विन मरुवर् वरुळं। पोरु वरु तिरुवडी पुगळ तर वडेदुं ॥१३६१॥ अर्थ-सभी देव मिलकर इस प्रकार भगवान को स्तुति करने लगे हे भगवन् ! आप सदैव प्रात्मा में स्वाभाविक दुख को उत्पन्न करने वाले नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव इन चार गतियों के दुखों को नाश करने वाले धर्मोपदेश को देने वाले हैं। आपके चरणकमलों को हम नमस्कार करते हैं । अापके चरण कमल हमारी रक्षा करें।।१३६१॥ परुदिइ नोळि वेल पगै पशि पिनि केड । वरुवन मलर् मिशै मदननै नलिवन ॥ उईरुरु तोडर् वर वेरिवन उलगिनी। लरियन् पेरिय नुमडिइन यडेदुं ।।१३६२॥ अर्थ-सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश को जीतने वाले, आत्मज्योति को आप प्राप्त हुए, और अनादि निधन द्रव्य कर्म और भाब कर्म को नाश किये हुए ऐसे मापके पवित्र धरण कमल को नमस्कार करते हैं ।।१३६२।। मुर पोरि मरै कड मुळे दु मोर् कनमदि । लरियु नल्लरि उडे रब इरव नुम्मडिइन । युरुतवर् मनमिश युरै वन उईहरु । पिरविय वर वेरि पेरुमय्य शरणं ॥१३६३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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