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मेह मंदर पुराण व मंदर श्रुतकेवली, भगवान के द्वारा बाणी खिरी हुई को श्रुतज्ञान के बल से अशरूप में जानकर उसको सूत्ररूप में गूंथ लिया ।।१२१३।।
मुडिविडे यगलमायद मोंडूळ मुळ । विडेइनै कइरगंड्रेळ नीळमा । यडिई नेळगंड नीडयर मीरेळ माय ।
वडि बुड़े युलग मूवांत शूळंददे ॥१२१४॥ अर्थ-हे भव्य मेरु व मंदर सुनो! इस लोक के शिखर में मध्य लोक में पूर्वापर विस्तार एक राजू है । तथा ब्रह्मलोक में पांच राजू चौडा व सात राजू अधोलोक में चौडाई में है। दक्षिण उत्तर सब जगह सात राजू है। ऊंचाई चौदह राजू है । यह लोक चारों ओर धनोदधिवात, घनवात, तनुवात इन तीन वातवलयों से वेष्टित है ।। १२१४।।
मुळंदै कावद मेळ् मुडिदुळि । मुळंजिलै गावद मूंड, बीळं दोर्प ।। ले©दिवा रेळ करैद चन्ड्रिड ।
बिछंदवा रोळिंद दोंडागु मेन मुगं ॥१२१५॥ अर्थ-इस प्रकार नीचे सात राजू , मध्य में एक राजू, लोक शिखर में एक राजू ब्रह्मलोक में पांच राजू इस प्रकार लोक का स्वरूप है ॥१२१५।।
अरे मुळ मेळ शेंडूगु नान् मुळं। पेरुग विवाट्रिनार पेरुगि शेंड्र मे ॥ ळर येळ कायट्रि नैगइर् कंड मेर् ।
पेरुगिय पडियिनार पिन् सुरुंगुमे ॥१२१६॥ अर्थ-मध्य लोक से ऊपर साढ़े तीन राजू जाकर वहां पर पांच राजू चौडा होकर फिर क्रम से घटता हुआ सिद्ध शिला के पास लोक शिखर पर एक राजू चौडा रह गया।
॥१२१६॥ पोदुवि नालोंड, माम् नाळिपाइरं । विविइना सुलगिरंगगग रिनार ॥ मुद नडु विदि यान् मूंड. मागिनार ।
गति रना निलत्ति नांगानु मेंबवे ॥१२१७॥ अर्थ-सामान्य से लोक का स्वरूप इस प्रकार है। लोक का स्वरूप एक प्रकार है और दूसरा लोक त्रसनाडी और बाह्य के भेद से दो प्रकार है। और अधो, मध्य, ऊर्व के भेद
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