SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५० ] मेरु मंदर पुराण तक प्रशांति नहीं होती है, अकाल और दुर्भिक्ष नहीं होते हैं, अकाल वृष्टि नहीं होती है । श्रापके चार घातिया कर्मों का नाश होता है। आपके परमोदारि शरीर देखकर आपकी स्तुति करने की भावना होती है ।। ११६३ ।। • तिरुमलिइन् वियत्तगवु मनतुइ रिन् मैत्तिरि चुन तिक्का काय । निरुमलमाय् विळं गुद लेव्विरुदुवं वंदुड निगळ व निलत्तु पंगुळ ॥ पेरुमे योजुमंगलंगं लर वालि पूमारि नरं काटुम् पोन । मरे मलरि निरं मोल वानवरिन् वरुमतिशय नम्मानीय ।। ११६४ ॥ अर्थ- आप की सभी को आश्चर्य करने योग्य वाक्प्रवृत्ति, सर्वजीवों में मैत्रीभाव, बदऋतु के फलफूल, धान्यादि उत्पन्न होकर धान्य समृद्धि होना । अष्ट मंगल द्रव्य, पुष्पवृष्टि मंद २ वायु का बहना, सोने से निर्मित श्रेणी के कमलों का देवों द्वारा निर्माण होना । ये सभी देवकृत अतिशय हैं । ऐसे अतिशय को प्राप्त हे भगवन् ! ग्राम हमारे लिये स्वामी हैं । ११६४॥ अळंदु विनं परं पुरं केडने तुलगु मलोग सुबेद नगत्ति नोंगे। बळंदरि विन मुगत्ता लेप्पुरुळु मुन दगत्तडविक इदोय् वंदु ॥ शेळकुंड शेरिविरुदु मुळंगु मेळिन् मुगिल पोल विराग मिट्टि । येळंबरुळि बिरुदे पोरुळ, मरुळिय वेगळिरैव नीये ॥। ११६५ ।। अर्थ - आत्मा के अंदर प्रनादिकाल से बंधे हुए चार घातिया कर्मों का नाश कर लोक और अलोक में रहने वाले सभी द्रव्य पर्यायों को अपने केवलज्ञान के बल से जानने की शक्ति को प्राप्त किये हे भगवन् ! आप चाकाश से मेघ समूह पर्वत पर उतरकर गर्जना करने के समान है । और आपको किसी प्रकार का दुख नहीं है। इस प्रकार आप किसी प्रकार कष्ट को न प्राप्त हो कर 'त्रमेखला पीठ में विराजमान होकर समस्त चराचर पदार्थों को प्रापकी पवित्र दिव्यध्वनि से कहने वाले हे भगवन् ! ।। ११६५ ।। Jain Education International शकंमल तुलवु मुंड्रन ट्रिबडि यं निनतिडवे सित्ति यन्तु । मंगने बंदवरं यडविडे वदन मेर कोर्डरंड्रा यदळ नोंगि ॥ ariai कोडुं नं यया होळिव वर गणेडंतु यरिन वोळक्काना । वंग वर मेलरुळ पुरिषु मुनिबु भगत् द्रिरुंदनं येस्मिरैव मीय ॥ ११९६ ॥ अर्थ-लाल कमल के ऊपर विहार करने वाले प्रापके चरण कमलों को अपने मन में भावना कर आपके स्वरूप को जानकर आपकी भक्ति करने वाले जीवों को मोक्ष लक्ष्मी बरती है । परन्तु प्राप दुखी जीवों को देखकर दुखों को नाश करने की भावना नहीं करते हैं । और सुखी जीवों को अधिक भक्ति करने वाले समझकर प्राप उनसे प्रेम नहीं करते हैं। ऐसे समभावों के धारक हे भगवन् ! ।।११९६ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy