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मह मंदर पुराण
सुत्त सूनियं तत्तुव मेंबवन् । सुत्त सूनिय मागिलु निर्किलं ॥
सुत्त मूनियं तत्त्व मल्लदाम् । सुत्त नियंतान् मुदलल्लवो ॥६६१॥
अर्थ - वस्तु सर्वथा शून्य है ऐसा कहने वाले मत भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि जो वस्तु सामने प्रत्यक्ष में दिखाई दे रही है उसको यदि शून्य कहा जायेगा तो प्रत्यक्ष रूप कहने में बाधा आती है । इस कारण सर्वदा वस्तु को शून्य कहने वाले स्वतः शून्य ही होते हैं; क्योंकि शून्य ऐसा कहने वालों की बात प्रत्यक्ष में दिखाई दे रही है ।। ३६१।।
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सोन्न सूनिय वादियुं सूनिय । मुन्न मिल्लदो मुन मुंडायदो ||
मुन्न मिल्लदर् केन्भो कि तानिलै । पिन इल्लदर केषिळं यायदे ||६६२||
अर्थ- - इस कारण प्रत्यक्ष वस्तु को शून्य कहने वाले स्वयं शून्य होते हैं । जानी हुई वस्तु को शून्य कहना सर्वथा असत्य है । भूतकाल में वस्तु थी या नहीं यदि ऐसा उनसे पूछा जाय तो यदि वे ऐसा कह दें कि वस्तु नहीं थी तो अनादि काल से चली आ रही वस्तु को सर्वथा शून्य कहना,अथवा हमारे सामने प्रत्यक्ष में जो वस्तु दीख रही है, उसको शून्य कहना तथा भविष्यत काल में उसी वस्तु का नाश न होना, इसका प्रापके मत से प्रत्यक्ष में विरोध माता है ।। ६६२ ।।
तोट्रं वीदल तोडरंदु निलै पेर । लावुं पोरुळिन् निगळ् वादलार् ॥ ट्रोट्र मायं दिडल् सूनिय मेंड्रिडि । नेट्र वारुरंता निले मदे ।।६६३।।
अर्थ - उत्पाद, व्यय रूप होकर रहने वाले को यदि ऐसा कहाजावे कि यह शून्य है तो उस तत्त्व को किस प्रकार माना जायेगा । ऐसा कहने वाले तथा सुनने वालों के मत के अनुसार यह ठीक नहीं है । ऐसा कहने से उस वस्तु में विरोध आता है ।। ६६३ ।।
sट्ट दिट्ट मेरिंदु तन्कोळिनं ।
विट्टु मारेदि तन् सोल विरोधिया ॥
केट्ट वारिव तीनेरि केळिनी ।
मट्टुला मुडियाय् नल्लवा नेरि ॥ ६६४॥
अर्थ- वे हरिचन्द्र मुनिराज किरणवेग को संबोधन करते हैं कि हे राजा किरणवेग !
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