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________________ मेरु मंदर पुराण [ १६३ जाता है। इसी प्रकार थोडा सा भी कपट बडे वडों के यश को मलिन कर देता है प्रतएव: भेयं माया महागान्मिथ्याघनतमोमयात् । यस्मिन् लीना न लक्ष्यते क्रोधादिविषमाहयः॥ माया मानो गहरा एक खड्डा है । इसके भीतर सघन मिथ्यादर्शनरूप बहुत अंधकार भरा हुआ है । इसी सघन अंधकार के कारण इस खड्ड में निवास करने वाले क्रोधादिक सर्प तथा अजगर दीख नहीं पाते हैं । जो जीव इस मायागर्त के भीतर आफंसता है उसे ये क्रोधादि भुजंग ऐसा डसते हैं कि फिर वह जीव अनन्तकाल पर्यंत भी सचेत नहीं होता। इसलिये भाई, इस माया से डरो; और भी कहा है कि: प्रछन्नकर्म मम कोपि न वेत्ति धीमान्, ध्वंसं गुणस्य महतोपि हि मेति मंस्थाः। कामं गिलन् धवलदीधिति धौतदाहो, गूढोष्यबोधि न विधुः सविधुन्तुदः कैः।। अर्थ-मैं अमुक एक दुष्कर्म करता हूं, परन्तु छिपकर करता हूं इसलिए इसे कोई भी समझ नहीं सकेगा। इस दुष्कर्म के कारण यद्यपि मुझे बडा भारी पाप लगेगा और अमूल्य व पवित्र मेरे वडे भारी मात्मा गुण का विघात हो जायगा। परन्तु दूसरा कोई समझ नहीं सकता। अरे भाई ! तू ऐसा कभी विचार मत कर । देख, चन्द्रमा में इतना बडा गुण है कि अपनी शीतल किरणों से जगत का अन्धकार दूर करता है तथा सूर्य की किरणों से दिन में संतापित हुए जनों के संताप को दूर करता है। ऐसे चंद्र को राहु चाहे जितना छिपाता रन्तु वह चन्द्र छिप नहीं पाता । छिपाने की हालत में वह यद्यपि दब जाता है परन्तु उस दवे हुए चन्द्र को तथा छिपाने वाले राहु को इन दोनों को ही लोग देखते हैं । ऐसा कौन मनुष्य होगा कि जो ग्रहण के समय उन दोनों के गुप्त कर्म को देख न लेता हो । वस इसी प्रकार चाहे जितना छिपाकर कोई पाप करे परन्तु जाहिर हुए बिना रहता नहीं है । किसी दुष्कर्म को छिपाना इसी का नाम माया या कपट है । जब यह कपट जाहिर हो जाता है मायाचारी के बडे फजीते होते हैं । इसलिये माया रखना बुरा है ।।३२४।। मोगमे तिरियक्कि डैयुयिप्पदु । मोगमे नरगत्तिल विळप्पदु ॥ मोगमे मरमाउदु मुद्रमु। मोगमे भरमासुर निर्पदुम् ॥३२॥ अर्थ-इस परिग्रह रूप पिशाच से गृहस्थ जीव निंदनीय होकर तिर्यंच गति को प्राप्त होता है और वह नर्क कुण्ड में जा पडता है । पाप बध के लिए मूल कारण परिग्रह है। इसको नाश करने के लिए भगवान वीतराग देव द्वारा कहा हुअा अहिंसामयी धर्म तथा मोक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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