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मेरु मंदर पुराण
चाहिए । इन्द्रिय सयम और प्राणि संयम यह दो प्रकार के संयम हैं। पंचेद्रिय विषय में रागद्वेष प्रादि रहित होना इन्द्रिय संयम है। त्रिगुप्ति, पंच समिति, स्थावर और श्रस जीवों पर दया करने को प्राणि संयम कहते हैं। तोन गुप्ति. पांच समिति आदि क्रिया को पालन करने वाले तपस्वी और मनदण्ड और काय दण्ड और वचन दण्ड से युक्त रहने वाले ऋद्धिगारव रसगारव तपगारव से रहित ऐसे वर धर्म मनिराज ने भद्रमित्र को धर्म का उपदेश देना प्रारम्भ किया। और वह भद्रमित्र शांतचित्त होकर बैठकर उपदेश सुनने लगा ।।३४४।।
करणयु मरिच मुंडियुरैयुळु मीदल काम । मरुळिला विरैवन् पादं शिरप्पोडु वनंगन मैय ॥ लिरुळ रतेळिदल वेंड्रो किरैव नगर शील ।
मरुवि निड्रोळुगल माट्रिसुळटि पीर मरुदि देंड्रान् ॥३४५।। अर्थ-मुनि महाराज ने कहा है कि हे भव्य शिरोमरिण भद्रमित्र! तुम आगे की धर्म चर्चा को ध्यान पूर्वक सुनो । गृहस्थाश्रम में रहने वाले भव्य जीवों के लिए संसार रूपी सागर को शनैः शनैः पार करने के लिए प्रथम सम्यकदर्शन उत्पन्न करने के लिए चार प्रकार का दान मुख्य है। सम्यकज्ञान की उत्पत्ति के लिए भव्य साधुजनों को शास्त्रदान सत्पात्रों को भोजनादि अाहार दान तथा भव्य जीवों के रहने के लिए स्थान तथा घबराये हुए को तसल्ली देना अभयदान है और रोग से ग्रसित दुखी प्राणी को औषध देना यह औषध दान कहलाता है। इस प्रकार सदैव चारों प्रकार के दान देना, भगवान की पूजा करना, जिनेन्द्र भगवान द्वारा कही हुई जिनवाणी का शास्त्र स्वाध्याय करना, पांच अणुव्रत, तीन गुणवत चार शिक्षा वत--ऐसे १२ व्रतों का पालन करना यह सब गृहस्थ के कर्तव्य हैं। इनका पालन करना संसार दुःख रूप व्याधि को नष्ट करने के लिए औषधि के समान है ।।३४५।।
वदंगळ पन्निरंडु मेरिवय्यग दुइकाट् के इल्ला । मिदं शैयदु वरु दिल वेंतिइड वेन्नै पोंड्रिगि ॥ सिदैत्तिन्ना दन शैदा' मिनियवे शैयदु शिंदै ।
कंद कडिदोळुग नल्लोर करुणय कोडुत्तलामे ॥३४६॥ अर्थ-सम्यकरूपी रत्न को प्राप्त किया हुआ जीव बारह प्रकार के व्रतों का निर्दोष रूप में सभी जीव को हित करने वाले दयामय धर्म का पालन करना अर्थात् जीव दया पालना, कोई जीव दुखी होने से उसके दुख को देख कर मन में करुणा भाव उत्पन्न होना, किसी पर दुख पाता देख कर उसकी दया करना, किसी के साथ बदला लेने की भावना न रखना, देव मूढता, शास्त्र मूढता, लोक मूढता तीनों मूढता से रहित होना, चौदह अगों का पाठी भिन्नभिन्न रूप से उपदेश देना, संयमी लोगों को शास्त्र देना, सभी शास्त्रदान हैं ।।३४६।।
इगियर् मूडमेन्नु मिरुळिनै तुरंदु कोंडु । वेंगदिर पोल तोडि मैमेय विळेक्कि निर्वा ॥
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