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मेरु मंदर पुराण मंगपूवादि नलि नरिविन सेरिय दिन् । मंगल तोळिलि नाडु मदियन कोडुत्तलामे ॥३४७।।
अर्थ-इस श्लाक में ग्रंथकार ने चार प्रकार के दानों का वर्णन किया है-शास्त्र दान, औषध दान, प्राहारदान और अभयदान । स्व-पर कल्याण तथा साध के वृद्धि एवं शरीर की साधना के लिए सम्यक्दृष्टि श्रावक जो दान देता है उसे आहारदान कहते हैं । यह आहार दान उत्तम मध्यम जघन्य इस तरह तीन प्रकार के पात्रों को दिया जाता है। पात्र का अर्थ ये है कि हिंसा झूठ चोरी कुशील परिग्रह इन पापों से तथा सप्त व्यसनों से रहित, जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए वचनों में तथा मार्ग में श्रद्धा रखने वाले गृहस्थ अर्थात् धर्म में आस्था तथा श्रद्धान रखने वाले को दान देना यह जघन्य दान कहलाता है । पांच अणुव्रत चार शिक्षाव्रत, ३ गुण व्रत-इस प्रकार इन बारह प्रकार के व्रतों का पालन करने वाले पहली प्रतिमा से ग्यारह प्रति माधारी जो उत्कृष्ट श्रावक हैं इनको दान देना-मध्यम पात्र दान कहलाता है। और दिगम्बर मूनि को जो दान दिया जाता है वह उत्तम पात्र कहलाता है। लू ले, लंगड़े, दीन, दरिद्री आदि जो जीव हैं उनका दुःख देखकर करुणा भाव सहित दान देना यह करुणा दान है । इनमें कीर्तिदान, समदान आदि आदि दान के कई भेद हैं। केवल प्रशसा के लिए धर्मशाला, औषधशाला, स्कूल, .कालेज आदि खुलाकर अपने नाम के लिए यों कीर्ति फैले यह दान शुभदान नहीं है बल्कि अपनी कीर्ति के लिए है। जो अपने बराबर कोई धर्मात्मा हो उनसे कन्या दान देना लेना धार्मिक भावना रखना-यह समदान है, इसमें भी यह जो दान कहे हैं यह दान जगत में श्रेष्ठ हैं । सत्पात्र दान की महिमा यह है कि सम्यकदृष्टि ज्ञानी पुरुष धन संपत्ति वैभव को सत्पात्रों को दान देकर चक्रवर्ती इन्द्र, तीर्थकर, नागेश्वर के पद को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं और इसी प्रकार ज्ञानी विषय कषायों से मुक्त होकर चारित्र पालन करता हया उसी भव से मोक्ष जाता है। सबसे पहले भूमि,महल,स्वर्ण, विभूति स्त्री आदि पदार्थों के लोभ रूपी सर्प विष के निवारण के लिए सम्यक् दर्शन सहित तथा वैराग्य रूपी अमोघ मंत्र ही फल प्रद है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। इस प्रकार जो सम्यक्त्व सहित चार प्रकार के दान देता है ऐसा सम्यकदृष्टि इस लोक व परलोक में अपनी कीति से अज्ञानी जीवों का भी कल्याण करता है और स्वयं का भी कल्याण करता है ऐसा विचारना चाहिए ।।३४७।।
उडवुनर् वोळुक्कं काक्षियुटवगै नल्लि वंवानाळ् । विडंगोळि वीरं वीडु मैत्तवं दरयंशील॥ मडंगलु मीदानुंडि ईदव नदनाल वैयत्त ।
तुंडंदु कोंडवर गट कुंडि पोलवदो रुदविरे ॥३४८॥ अर्थ-निर्दोष आहार उत्तम पात्र मुनि को देने वाले भव्य जीवों का शरीर ज्ञान चारित्र, सम्यक्दर्शन, संतोष सुख, नीरोग तथा तपस्वी शरीर दीर्घ प्रायु पराक्रम मोक्ष प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ तप शील सच्चारित्र वाला होता है । इस कारण सत्पात्र दान ही समय है। इन चारों दान से माहार दान श्रेष्ठ है ॥३४८।।
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