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________________ २४ ] मेह मंदर पुराण बैठ गया। मुनिराज के धर्मोपदेश को सुनकर उनको वैराग्य उत्पन्न हो गया। तदनंतर जिन दीक्षा लेकर निरतिनार तप करके अंत में सल्लेखना की विधि से मरणकर ब्रह्मकल्प नाम के पांचवें स्वर्ग में गया । हे धरणेंद्र सुनो! पंचानुत्तरों में सर्वार्थसिद्धि नाम के अहमिंद्र लोक में रहा हुआ वजायुध का जीव आकर संजयंत हुमा । ब्रह्मकल्प गया हुमा जीव आकर जयंत हो गया। जयंत ने दीक्षा लेकर एक दिन धरणेंद्र को और उसके पूरे परिवार को देखकर निदान बंध किया कि तप के प्रभाव से मैं धरणेंद्र होऊ । सो मरकर वह धरणेंद्र के जीव प्रापही हैं । सत्यघोष का जीव अतिदारुण है । अतिदारुण का जीव सातवें नरक में गया। मरकर अजगर हुग्रा। अजगर की पर्याय से मरकर तीसरे नरक में गया। वहां से आकर पशु पर्यायों में जन्म लिया। अनंतर जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के भूतरमण वन में मिथ्या तापसी सब मिथ्यादृष्टियों का अधिपति गोशृग नाम का था। उसकी स्त्री का नाम संगी था। उन दोनों के (सत्यघोष का पुराना जीव) मृग शृंग नाम का पुत्र हुप्रा । वह भी मिथ्या तपस्वी हो गया। तब अतिसुंदर विद्याधर आकाश में एक दिन जा रहा था। देखकर उसने निदान किया कि मैं भी अगले जन्म में ऐसा ही विद्याधर हो जाऊं, तब वह मृगशृगे तापसी मरकर विजयापर्वत की उत्तर श्रेणी में कनकपुर के अधिपति वज्रदंत को पटरानी विद्य त्प्रभा से पूत्र हया और एक दिन उसने संजयंत मुनि को देखकर पूर्वभव के बर से उपसर्ग किया। मृग शृग का जीव पूर्वभव में सत्यघोष था। क्रोध व मायाचार के कारण अनेक कुगतियों में दुख भोगत हुआ यहां आया। संजयंत मुनि पूर्वभव में सिंहसेन थे। अब संजयंत हैं। संजयंत मनि उपसर्ग सहनकर मोक्ष में चले गये। सत्यघोष मंत्री का जीव अगंध सर्प हुआ, तत्पश्चात् चमरी मृग होकर कुक्कुट सर्प हुआ और तीसरे नरक में गया। वहां से प्रायुपुर्ण करके चयकर अजगर पर्याय धारण की और चौथे नरक में गया। वहां से भील को पर्याय में गया। तत्पश्चात् भील का जीव सातवें नरक में गया। और सर्प हो गया। वहां से तीसरे नरक मे गया। अनंतर मध्यलोक में आकर मृगसिंह नाम का तापसी हुा । तदनंतर अंत में विद्य इंष्ट्र विद्याधर होकर धरणेंद्र के पास आया । वह सिंहसेन राजा हाथी की पर्याय धारण कर आयु पूर्ण करके सहस्रार कल्प में देव हुअा। तदनंतर मध्यलोक में किरणवेग राजा हुआ। आयु पूर्ण करके कापिष्ठ कल्प में देव हमा। तत्पश्चात् मध्यलोक में आकर वज्रायुध नाम का राजा हा। तदनंतर पंचारगुत्तर कल्पातीत में देव हृया। वहां से चयकर संजयंत नाम का राजा होकर तपश्चरण करके मोक्ष चले गये। इसलिये हे धरणेंद्र इस विद्यु दंष्ट्र को नागपाश से मुक्त कगे। इस प्रकार आदित्याभ देव ने कहा। तब धरणेंद्र ने आदित्याभ देव को देखकर कहा कि आपने नरक में आकर मुझे धर्मोपदेश दिया। उसके अनुसार चलने से मैंने धरणेंद्र पद को प्राप्त किया। तब धरणेंद्र ने कहा कि मैं इस विद्याधर को ऐसे नहीं छोडूगा। इसकी मब विद्याओं को छेद करूंगा तव छोडूंगा। इस बात को सुनकर ग्रादित्याभ देव ने कहा कि मैंने जो कहा है कि इसको छोड़ दो इसमें तुमको तर्क नहीं करना चाहिये । इनके अपराध को क्षमा कर दीजिये और आगे ऐसी विद्याओं को पुरुषवर्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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