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________________ मेरु मंदर पुराण २५ ] साधन न करें और केवल स्त्रियां ही ऐसी विद्याओं को प्राप्त करे। यदि संजयंत मुनि के मोक्ष स्थान पर स्त्रियां आकर मंत्र की साधना करें तो अवश्य मंत्र सिद्ध हो जावेगा। वहां जाकर उनका मंदिर बनाना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करोगे तो सभी विद्याधः को कष्ट देगा और इस ह्रीमंत नाम के पर्वत पर संजयंत नाम की प्रतिमा की स्थापना करके पंच कल्याणक प्रतिष्ठा करायो। तदनंतर वह धरगोंद्र देव अपने भवन लोक में चला गया। आदित्याभ देव उस विद्यु इंष्ट्र विद्याधर को देखकर कहने लगा कि अव तुम पूर्वभव के बैर को छोड़कर उनके चरणों में भक्ति पूर्वक नमस्कार करो। एक भव में बैर करने से तुमको अनेक जन्मांतर में भ्रमण करना पड़ा। इस कारण तुम इस संजयंत मुनि सिद्ध भगवान की पूजा स्तुति करके अपने द्वारा किये हुए अपराधों को क्षमा मांगो और कहो कि मैंने अविवेक से जो प्राज तक अपराध किए हैं वह क्षमा करिये। इस प्रकार वह विद्यु इंष्ट्र विद्याधर क्षमा मांग कर नमस्कार करके अपने स्थान को चला गया और प्रादित्याभ देव अपने लांतवस्वर्ग में चला गया। ग्यारहवां अध्याय समाप्त बारहवां अध्याय आगे रामदत्ता का जीव आदित्याभ देव हुआ। पूर्णचंद्र का जीव धरणेंद्र हुआ। इन दोनों के भावी भावों की कथा कहता हूं। इस भरत क्षेत्र में उत्तर मथुरा नगर का अधिपति राजा अनंतवीर्य था। उनके दो पटरानी थीं। एक रानी का नाम मेरु मालिनी तथा दूसरी पटरानी का नाम अमृतमति था। मेरुमालिनी रानी के गर्भ में आदित्याभ देव का जीव चयकर आया। उसका नाम मेह रखा गया। अमृतमति रानी के गर्भ में धरण्द्र देव ने पाकर जन्म लिया । इसका नाम मंदर रख दिया। ये दोनों राजकुमार सभी कलाओं में व विद्याओं में प्रवीण होकर यौबन को प्राप्त भए। परन्तु इन दोनों ने संसार को असार समझ कर द्वादशानुप्रेक्षा का चितवन किया। एक दिन श्री विमलनाथ तीर्थंकर भगवान विहार करते २ उत्तर मथुरा के निकट उद्यान में पधारे। चतुणिकाय देव से निर्मित स्थान पर समवसरण सहित वहां भगवान पाकर विराजमान हुए। इसको देखकर वहां के रहने वाले वनपाल ने नगर में जाकर दोनों राज को निवेदन किया। तब दोनों राजकुमारों ने अपने शरीर पर धारण किये हए ग्राभरणों को वनपाल को देकर सात पंड आगे जाकर नमस्कार किया। पूजा करने के लिये प्रष्ट द्रव्यों को लेकर अपने हाथी पर बैठकर समवसरण देखने को अपने उद्यान में चले गये। बारहवां अध्याय समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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