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मेरु मंदर पुराण
[ २७१ अर्थ-भक्तिपूर्वक पूजा स्तुति करके वह किरणवेग प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! आपने मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ऐसे चार ज्ञानों को तथा पांचवें केवलज्ञान को प्राप्त करके चार घातिया कर्मों को नष्ट किया है और उस केवलज्ञान के द्वारा तीन लोक में चराचर वस्तु को तथा उसकी द्रव्य पर्याय को जानने की शक्ति प्रापने प्राप्त की है। और पचेन्द्रिय क्षणिक सुख को विष के समान समझकर उसको त्याग करके प्रतीन्द्रिय शाश्वत सुख को प्राप्त किया है। आप में अनन्त गुण विद्यमान हैं । हम अल्प ज्ञानियों में स्तुति करने की योग्यता नहीं है । इसलिये हम आपके गुणानुवाद तथा स्तुति करने में असमर्थ हैं ।।६३०॥
ओड्रि यावयु मुन्म इनालेना। प्रोड्रलामयु मुन्मयु मोदिना ॥ योंड्रिडादन पोलु निन्वाय मोळि ।
योंड्रिडा विनै योडुळ वारुळम् ॥६३१॥ अर्थ--जीवादि द्रव्य द्रव्याथिक नय की अपेक्षा एक है और पर्यायाथिक दृष्टि से अनेक हैं। ऐसा आपने अपने केवलज्ञानादि द्वारा बतलाया है। परन्तु आपके वचन पर मिथ्यादृष्टि लोग विश्वास नहीं करते हैं ।। ६३१॥
नित्तमाम् पोरुळ् निड गुरगत्तेना । नित्तमु मलनिड गुरगत्तेना ॥ . नित्त मुंडि निलाद निन्याय मुळि।
नित्तमुं निनै वार् विन नोंगुमें ॥६३२॥ अर्थ जीवादि द्रव्य निश्चय नय से एक होने पर भी वह द्रव्याथिक अपेक्षा से नित्य है। पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से प्रनित्य है । इसी प्रकार प्रापका वचन अनेकांतमय है और अनेक प्रकार का है।
भावार्थ - ग्रंथकार का कहना है कि भगवान की वाणी अनेकांतमय है। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप से युक्त है। द्रव्याथिक नय की अपेक्षा वस्तु नित्य है मोर पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य है । पालाप पद्धति में कहा है कि"नयभेदा उच्यन्ते-अर्थात् नय के भेदों को कहते हैं:
पिच्छय-ववहारणया मूलमभेया गयारण सव्वाणं ।
रिणच्छयसाहणहेऊ दव्वयपज्जत्थिया मुबह ॥ सम्पूर्ण नयों के निश्चय नय और व्यवहार नय ये दो मूल भेद हैं । निश्चय का हेतु द्रव्याथिक नय है और व्यवहार का हेतु पर्यायार्थिक नय है । निश्चय नय द्रव्य में स्थित है
और व्यवहारनय पर्याय में स्थित है। श्री अमृतचंद्राचार्य ने भी समयसार में गाथा १६ की। टीका में "व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वात्" निश्चयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्" इन शब्दों द्वारा
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