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मेरु मंदर पुराण
कारिन् मेळवं कदलि कोडि ।
तार मणिगळ शेलिप्प वोलिप्पन् ॥ वारि मोदु वरु परितेरिडं ।
तार् मरिणयत् शेलित्तोलि पोलुमे ।।१११२॥
अर्थ - मेघ मंडल पर लहराने वाली पताकानों के हलन चलन होने से ध्वजानों पर रहने वाली फूल के समान उन घंटियों (टोकरें ) के शब्द अत्यन्त मधुर होते थे । वे शब्द कैसे थे जैसे सूर्योदय होते समय सूर्य ऊपर आता है और छोटे २ घंटे आदि बजते हैं, उसी प्रकार शब्द होते थे ।। १११२ ।।
इंद वान् वान् कोडि ये कडंदेगलुं । बंदु तोंड्र, मगोदय मंडपं ॥
सुंदरं मात्तू निरं यायिर । तें कोइन् मुगत्ति निरुंददे ।। १११३ ॥
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अर्थ - इस जयाश्रव मंडप को उलांघ कर जाते ही उसके सामने महोदय नाम का मंडप है । वह मंडप एक हजार स्तंभों से निर्माण किया हुआ है और भगवान के मंदिर के सन्मुख है ।।१११३ ।।
म मंडप तुमरि पोडिगं । सोर किलत्ति इरुक्कै सुदक्कडन् ॥ मुद्रम् वंदो मूर्ति कोंडलन्न । पेट्रिया लिरुंदाल वलत्तिरिई ॥ १११४ ॥
अर्थ - उस मंडप के अंदर रत्नों से देवी की मूर्ति विराजमान है। श्रुतज्ञान नाम
निर्मित की हुई पीठ है । उस पीठ पर सरस्वती का समुद्र जिस प्रकार इकट्ठा होकर आया हो उसी के समान दिखाने वाली वह देवी थी । और उसके बाई बाजू श्रुत है ।। १११४ । ।
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सोर्विन् मादवर् सूल् सुदकेवलि । तारगं नडुचंदिरन् पोलववन् ।।
कार् पैविर् कुदवं बडि यालुइर् । afa मिडि यरतै लिक्कुमे ।। १११५ ।।
अर्थ-उस सरस्वती देवी के दाहिने भाग में अनेक मुनि बैठे हुए हैं और उनके बीच एक श्रुतवली । जैसे मेघ बादलों से वर्षा करता है उसी प्रकार वे मुख कमल से भव्य जीवों को उपदेश करते हैं ।। १११५ ।।
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