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________________ मेरु मंदर पुराण [ २७७ मंड्रत्लर मुडइनाय मांद. वोटुमाम् । सेंड्र तत्वं तिळियामै तेरलाल् ॥६३९॥ __ अर्थ-किरणवेग की प्रार्थना सुनकर उस चैत्यालय में स्थित अशोकवृक्ष के नीचे चंद्रशिला पर विराजमान चारण ऋद्धिधारी हरीचंद्र मुनि कहने लगे। हे भव्य शिरोमणि राजा किरणवेग सुनो ! जीवादि तत्वों के न जानने वाले संसारी जीव इस संसार में हमेशा भ्रमण करते रहते हैं। जीवादि तत्व को समझे हुए सम्यक्दृष्टि जीव स्वर्गादि सुख की इच्छा करते हैं। इस क्षणिक राज लक्ष्मी को एक दिन छोडना ही पडेगा । इसलिए इसको राजी खुशी से छोडकर आत्म-कल्याण में लगना, यही ज्ञानी जीवों को उचित है। तत्व भावना में कहा है "नानारंभपरायणैर्नरवरैरावय॑ यस्त्यज्यते । दुःप्राप्योऽपि परिग्रहस्तृणमिव प्राणप्रयाणे पुनः । आदावेव विमुञ्च दुःखजनक तत्वं त्रिधा दूरतश्वेतो मस्करि मोदक व्यतिकरं हास्यास्पदं मा कृथाः ॥ यहां प्राचार्य कहते हैं कि राजलक्ष्मी आदि २ बडी २ सम्पत्ति बडी मेहनत से एकत्रित की जाती है, जो प्रत्येक को मिलना असंभव है । परन्तु करोडों की सम्पत्ति कैसे भी वह कमाई गई हो शीघ्र छोडकर जाना पड़ता है। जब मरण का समय आ जाता है उस समय हाथ से जैसे तिनका गिर जाता है उसी प्रकार सब छूट जाता है । ज्ञानवान प्राणी को उचित है कि पहले ही मन, वचन, काय से उसको छोड दे। इससे पहले सारे परिग्रह को त्याग करे । ज्ञानी को स्वयं मोह त्याग कर सब छोड देना चाहिये। यदि परिग्रह न हो तो नवीन परिग्रह को बढाना नहीं चाहिये । परिग्रह को ग्रहण करके वास्तव में छोडना हंसी का स्थान है। किसी ने एक फकीर को बहुत से लड्डू दिये। उनमें से एक लड्डू विष्टा में गिर गया। तब उस लोभी फकीर ने उस लड्डू को उठा लिया। तब एक वृद्ध प्रादमी ने कहा कि तुमने इस लड्डू को क्यों उठाया तो जवाब मिला कि मैं घर जाकर इसको फेंक दूंगा। तब उस वृद्ध ने हा कि जब इस लड्डू को फैकना ही था तो उठाने की क्या आवश्यकता थी। इस प्रकार प्राचार्यों ने कहा कि इसको ग्रहण करना बद्धिमानी नहीं है। यह प्रात्मा के घात करने का कारण है । वास्तव में चेतन अचेतन का परिग्रह आत्मा को सैकडों दुखों में पटकने वाला है। इसलिए जो निर्विकल्प सुख को चाहते हैं, प्रात्मीय आनन्द का अनुभव करते हैं उनको भगवान द्वारा कहे हुए तत्वों को मानने से ही अविनाशी निर्विकल्प सुख की प्राप्ति हो सकेगी ॥६३६॥ अत्ति नित्त मनित्त मवाचिय । मोत्त वेट मै योट्र में सूनियं॥ तत्वं मिवै योंड्रिय तन्मयाल । मित्तमारं वेरेयन वेंडिनाल ।।६४०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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