SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ ] मेरु मंदर पुराण अर्थ - श्री भगवान की वाणी अनेकांतमयी है । वह अनेकांत अस्तित्व, नास्तित्व श्रवाच्य, भिन्नत्व, अभिन्नत्व और शून्यत्व ऐसे छह नयों से युक्त होकर वस्तु स्वरूप को भिन्न २ रूप से मानते हैं । कोई नित्य तत्त्र को मानता है, कोई अनित्य तत्व को, कोई वाच्य तत्व को, कोई श्रवाच्य तत्व को मानता है । इस प्रकार मानना मिथ्यात्व है ।। ६४० ।। नित्तमे तत्वमें निड्रवन् । 9 शित्तं वैत्त पोरुडेरिंदु शेप्पुमें । नित्तमे पेंड्र कोळळियु मंड्र े निल । तत्वंदान पेरर् पाडु मिल्लये ॥६४१ ॥ अर्थ- वस्तु सर्वथा नित्य है ऐसा कहने से उस वस्तु के अनेक रूप उत्पाद व्यय, श्रादि स्वरूप को कैसे बताया है? यदि वह नित्य ही होता तो किसी भी वस्तु की उत्पत्ति नहीं हो सकती । वस्तु स्यात् श्रनित्य भी है और नित्य भी है ऐसा समझना चाहिये । यदि वस्तु को नित्य ही कहा जावे तो यह वस्तु उत्पाद, व्यय, ध्रुव रूप है ऐसा नहीं कह सकते । इस संबंध में प्राचार्य समंतभद्र ! आत्म-मीमांसा में श्लोक ३७ में कहते हैं: Jain Education International "नित्यत्वे कांतपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । प्रागेव कारकाभावः क्व प्रमाण क्वतत्फलम् ॥ free rain वादी के कहने के अनुसार वस्तु कूटस्थ रहने से एक सी रहे । उसी पक्ष में कूटस्थ रहने में होने वाली क्रिया या उसकी शक्ति अथवा परिस्पंद चलना या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाना ऐसी अनेक प्रकार की क्रिया नहीं बन सकती है। क्योंकि कारक, कर्त्ती कर्म आदि का कूटस्थ में पहले से प्रभाव है, और वह कभी पलटता नहीं। और यदि पलटे नहीं तो कारक को प्रवृत्ति कैसे बने ? पुनः जब कारक का प्रभाव हो जायगा तो प्रमारण कहां और प्रमाण का फल प्रमिति कहां से ? इसलिये प्रमाण का कर्ता हो तब प्रमाण और प्रमिति संभव होती है । अकारक प्रमाता नहीं होता है । जो कोई भी किसी के प्रति साधत न हो तो अवस्तु ठहरे, तब श्रात्मा की शुद्धि भी नहीं होती। ऐसा कहने से नित्यात्मा में दूषण श्राता है । फिर वह सांख्यमती कहते है कि हम अव्यक्त पदार्थ कारण रूप है उसको सर्वथा नित्य मानते हैं और कार्य रूप व्यक्त पदार्थ को अनित्य मानते है । इसलिये उससे विक्रिया बनती हैं। वहां व्यक्त जो पदार्थ है वह किसके निमित्त से छिपा हो उसको प्रगट होना है ऐसे तो अभि व्यक्ति और नवीन अवस्था का होना उत्पत्ति है ऐसा व्यक्त पदाथ को नवीन मानकर विक्रिया होती है. प्राचार्य फिर उसके लिये कहते हैं ।। ६४१ ।। निलंइन तन्मये तोङ् केडि । इलैयेनिलिरैवनु तुलु मिलैयाल् ॥ निलंडला मावु नीक मिन्मइर् । ट्रोलविला वीट तोट्र मिल्लये ।। ६४२ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy