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________________ २७६ ] मेरु मंबर पुराण पहुंच सकता है ॥६३५।। पोंग शाय मरे पूमळे मंडिलम् । शिंग मेंदन पिडि सेलू कुडे । येंग यूवम दामोळि दुंदुभि । मॅगडि विनै तीर वेळगुंमे ॥६३६॥ हे भगवन् ! आपके ऊपर ढोरने वाले चंवर, पुष्प-वृष्टि, प्रभा मंडल, सिंहासन, अशोक, वृक्ष, मीन छत्र, दिव्यध्वनि और देववाद्य को देखते ही आपके दर्शन मात्र से सर्व पापों का नाश हो जाता है ॥६३६।। विलंकरसनय वोक्काळे वीर नै । इलंगि निडि पळिदत्ति इन्वर्ग । वलंकोंडु मुनियरि चंदिरन नव । नलं कल सेवडि मुडियिर् ट्रीटिनान् ॥६३७॥ इस प्रकार स्तुति करके राजा किरणवेग अनन्त वीर्य से युक्त जिनेन्द्र भगवान की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए प्रदक्षिणा देकर उस चैत्यालय के प्राकार तथा मंडप में विराजमान भगवान के दर्शन कर सभामंडप में पाया और वहां सिंहचन्द्र मुनि को देखा। मनिराज को देखकर मन, वचन, काय से भक्तिपूर्वक कर-बद्ध होकर पंचाग नमस्कार करके खडा हो गया ॥६३७॥ अरुंतव नरसने कुशल मोविन । तिरुदिय गुरगत्तिना निदि शोय वेन ॥ ट्रिरुंदव मिळुदु मादगत्तुं वोटिनुं । पोरंदु कारण मरुळ् पोट्रियेंड नन् ॥६३८। अर्थ-उन मुनि ने किरणवेग राजा को सद्धर्म वृद्धिरस्तु ऐसा प्राशीर्वाद दिया अर्थात् सद्धर्म की वृद्धि हो। और कहने लगे कि हे किरणवेग 'जीयात्' अर्थात् जयवन्त हो, ऐसा शुभ आशीर्वाद देकर पूछा कि राजन कुशल है । मुनिराज के वचनों को सुनकर वह किरणवेग संसारी भोग से विरक्तसा होकर चरण कमल में नमस्कार करके कहने लगा कि हे प्रभु ! हे परम गुरु ! संसार में कुशलता कहां से आयेगी। जब तक यह जीव संसार बंधन से स्टकर प्रखंड मोक्ष सुख को प्राप्त नहीं करता तब तक आत्मा को सुख कहां से मिल सकता है? अतः हे प्रभ! मोक्ष सुख को प्राप्त करने की जिन दीक्षा देकर मेरी रक्षा कीजिये। ॥६३८॥ इंदु विनेळि लोडुत्तिलंगु पारमे । निड़ पिडि ईनिळलिरंद चारनन् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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