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________________ मेरु मंदर पुराण [ २७५ हुप्रा । अतः भली प्रकार निश्चय हुमा है असंभवता बाधक प्रमाण जिसमें है ऐसे अहंत भगवान प्राप ही संसारी जीवों के स्वामी हो, प्रभु हो इस कारण अत्यन्त दोषों का और कर्मों के मावरण की हानि का तथा समस्त तत्वों का ज्ञातापना होने से समस्त मुनियों ने प्रापका स्तवन किया है। इस प्रकार प्राचार्य समंतभद्र स्वामी ने निरूपण किया। तब साक्षात् भगवान ने पूछा जो अत्यन्त दोष और कर्मों के प्रावरण हानि मेरे में निश्चय की सो कैसे? फिर प्राचार्य कहते हैं: "दोषावरणयोर्हानिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥ (आ.मी.) __ दोष और प्रावरण की हानि सामान्य तो प्रसिद्ध है । एक देश हानि से थोडे ज्ञान वाले के एक देश निर्दोषपना और एक देश ज्ञानादिक उसकी हानि के कार्य देखिये हैं। इस कारण निर्दोष प्रावरण की हानि किस तरह देखिये है। यहां प्रति शायन अर्थात् हानि वृद्धि होती देखिये है जैसे कनक पाषाण में कीट कालिमा प्रादि अंदरूनी व बाहर का मैल ताव देने से मैल का अभाव हो जाता है वैसे मला ज्ञान के नाश के लिये जो सम्यकदर्शन, सम्यक यकज्ञान, सम्यक्चारित्र के पालने से सब प्रकार के दोषों को तथा कर्मों के प्रावरण का प्रभाव हो जाता है, ऐसा सिद्ध हुआ है। कर्मों के प्रावरण तो ज्ञानावरणादिक कर्म पुद्गल के परिरणाम हैं और दोष प्रज्ञान रागादिक जीव के परिणाम है । फिर यदि यहां कोई यह कहे जैसे प्रतिशायन हेतु दोषों के प्रावरण की हानि संपूर्ण साधी तैसे कहुँ बुद्धि प्रादि गुण भी हानि बधती २ देखिये हैं .सो यह भी कहीं पूर्ण सधे हैं ? इमका यह उत्तर है कि बुद्धि प्रादि की सम्पूर्ण हानि प्रात्मा विष साधते हैं तो आत्मा के जडपना मावे और बडपना माने से बडा भारी दोष लगे तो जीव और पुद्गल का संबंध बंध पर्याय में क्षयोपशम रूपबुद्धि है। उसका प्रभाव होता है सो प्रात्मा का स्वाभाविक ज्ञानादि गुण तो सारा प्रकट हो जाता है और बंध पर्याय का प्रभाव हो जाता है। पुद्गल कर्म जड रूप भिन्न हो जाता है उमो प्रकार पुद्गल के बुद्धि आदि गुण का प्रभाव का व्यवहार है। ऐसे वीतराग सर्वज्ञ पुरुष अनुमान से सिद्ध होता है । इसलिये अहंत भगवान को नमस्कार किया है ॥६३४॥ मारि मुक्कुळिन मायं दु पिरंदुमार् । द्वार नत्तिलेन नाळ तुयर् पोय बन् । पार माय उन पार मडैद पिन् । बारि बोळंद बन माल करै सेंबरं वाम् ॥६३५॥ पर्य हे भगवन् ! सम्पूर्ण जीवों पर दया करने वाले आपके चरणकमल में प्ररण माये हुए जीव का सभी दुख नाश होता है । जिस प्रकार समुद्र में पड़े हुए मनुष्य को यदि बीच में उसके हाथ में कहीं लकडी का टुकड़ा मिल जावे तो वह मनुष्य उसके सहारे से समुद्र के किनारे पहुंच सकता है। उसी प्रकार तुम्हारे चरणकमल में पल्प स्तुति करने मात्र से इस • क्षणिक संसार रूपी पटवी में रहने वाला भव्य जीव संसार समुद्र से तिर कर इष्ट स्थान पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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