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________________ . २७४ ] मेरु मंदर पुराण हे भगवन् ! यदि हम तीर्थकर कहेंगे तो उसके द्वारा भव्य तिर जाते हैं, ऐसे धर्मतीर्थ को पाप करते हो तो इस प्रकार करने से तीर्थकर कहेंगे या तीर्थंकर प्रागमन कहेंगे तो इसमें भी परस्पर विरोध होता है । सभी में प्राप्तपना नहीं हैं । इसलिये कोई एक गुरु स्तुति करने योग्य होता है. सभी देव नहीं होते। . हे भगवन् प्राप्त ! तुम्हारे तीर्थकरपने हेतु से महानपना साधे तो यह तीर्थकरपना अनुमान प्रमाण से तो सिद्ध नहीं होता । प्रत्यक्ष आप दीखते नहीं, और उसका लिंग भी नहीं दिखता। और पागम से साधे तो पूर्ववत् आगम का साधन ठहरे पुनः यह विचार हो। इस कारण इन्द्रादिक विषय में भी असभव ही है। तो भी बौद्ध धर्म आदि अन्यमती भी सब अपने २ को तीर्थंकर माने हैं। फिर तुम्हारे में और उनमें अन्तर ही क्या है। वे भी सर्वज्ञ नहीं। इस कारण परस्पर पागम विरुद्ध कहता है। जो विरुद्ध न कहे तो मतभेद काहे का । इसलिए तोर्थकरपने का हेतु है तो कोई भी इस महानपने को नहीं साधे। यहां मीमांसक मत वाले यह कहते हैं कि इसी से पुरुष तो कोई भी सर्वज्ञ महान स्तुति करने योग्य नहीं है, कल्याण के अर्थ तो वेद ही कल्याण के उपदेश का साधन है ? __ बेद आप ही स्वयं अपने अर्थ को नहीं कहता । वेद का अर्थ पुरुष ही करते हैं उनमें परस्पर में विरोध देखा गया है। भट्ट के सम्प्रदायी तो वेद का वाक्याथं भावना को मानते है। प्रभाकर के सम्प्रदायी नियोग को वाक्यार्थ मानते हैं, वेदान्त वाले विधि को वाक्यार्थ मानते हैं। इनमें आपस में विरोध है। नास्तिकवादी चार्वाक तथा शून्यवादी यह कहते हैं कि जब कोई वस्तु ही सत्यार्थ नहीं है तब किसका प्राप्त और काहे की परीक्षा विवाद का प्रयास करना ? कोई वस्तु है ही नहीं इसका निश्चय कैसे करें? तुम नास्तिक हो और यह कहते हो कि कोई वस्तु ही नहीं है तो तम्हारी बात कौन मानेगा। क्योंकि सर्व वस्तु का जानने वाला सर्वज्ञ प्राप्त है। वस्तू का स्वरूप कोई किस प्रकार मानता है कोई किस प्रकार मानता है इसकी परीक्षा भी करना चाहिये और परीक्षा होय तो प्रमाण सहित ज्ञान से होय है। प्रमाणरूप ज्ञान है और सर्वथा सच्चा ज्ञान सर्वज्ञ देव का है, सो वह सर्वज्ञ अदृष्ट है उसका निश्चय करना चाहिये । और जो थोडा ज्ञान वाला हो सो अपने ज्ञान के ही प्राश्रय होता है । सो साधक और बाधक प्रमाण का कैसे निश्चय होय । वादी प्रतिवादी निष्पक्ष निश्चय करे तो कोई प्रकार की बाधा नहीं होवे और इसी प्रकार निश्चय करना ही परीक्षा है । फिर मीमासक कहते हैं कि अल्प ज्ञानी को तो सिद्ध होय और सर्वज्ञ की सिद्ध नहीं ऐसा कैसे ? जो अल्पज्ञ प्रात्मा की सिद्धि है उसके निषेध के लिये इस श्लोक में "कश्चिदेव भवेद्गुरुः ऐसा कहा है अर्थात कहिये कौन गुरु है ? ज्ञानरूप प्रात्मा है वही गुरु है वही महान है। जिससे इस आत्मा और पुद्गल के संबंध में ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रावरण से अल्प ज्ञपना दोषसहित पना है । जब प्रावरण दूर हो गया तो प्रात्मा सर्वज्ञ वोतराग हो गया। यह प्रमाण से सिद्ध है । ऐसा प्राप्त सर्वज्ञ का निश्चय हो जाय और भगवान के वचनों का निश्चय हो जाय और आगमानुसार सब निश्चय हो जाय । ऐसा निश्चय करके देवागमादि विभूति सहितपना से और विग्रहादि महोदयपना से तथा तीर्थकरपना से तो प्राप्त सिद्ध न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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