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________________ मेरा मंदर पुराण [ १०७ चक्रवर्ती, धरणेंद्र, सुरेंद्र इनको तीनकाल में प्राप्त होने वाले सुख इंद्रिय सुल ही हैं । परंतु यह सुख सिद्ध भगवान को एक ही क्षरण में हो जाता है। देवाधिदेव को प्रतींद्रिय सुख उत्पन्न होता है। ऐसे महान् सुख को प्राप्त करने वाले भगवान् भाप ही हैं औौर संसारी जीवों को भी सुख प्राप्त कराने वाले प्राप ही हैं ।। १७६ ।। शेfरद माघवन् तिरुवडि तल शिलिप्पोडि शिलतु बिसोन्नार् । afra घातिनेनगुण नाइन नैयूबिन तुलगुविच ॥ परंतु बंदु नपळ मर परवइन् पन्नगर् मुदलानोर् । निरस्कोळ मामलर् सोरियन रेलिन बेर्तन बिनं येक्लाम् ॥ १७७॥ प्रर्थ -- इसी प्रकार संजयंत मुनि को केवल ज्ञान होते समय सभी केवली भगवान् की स्तुति कर रहे थे । स्तुति करते समय संजयंत केवली भगवान् ने प्रघातिया कर्मों को नाश करके सिद्ध लोक में गमन किया। तत्पश्चात् भवनवासी, ज्योतिष्क तथा व्यंतर प्रादि देव अनेक फलों से भरे हुए जिस प्रकार वृक्ष में पक्षी इधर उधर से प्राकर उस झाड को घेर लेते हैं उसी प्रकार जहां भगवान के कर्मों का क्षय किया था, उसी स्थान पर सभी देवों. ने सुगंध वृष्टि प्रौर पुष्प वृष्टि करके स्तुति की। इस प्रकार उनकी भक्ति करने से देवों की कर्म स्थिति घट गई ।। १७७ ।। प्रमिति नंजु कण्ण कळगि बेंड्रड बन् पोल ! तिमिर माम् विनयें नीबिक सितिशं तबशिर काकुं ॥ भ्रमररण बुरुवन् कोंड मुनिवनाय् कुमरन् ट्रातुम् । तमरण मगिळं तु नजिर शालवं परिंग निङ्गान् ॥ १७८ ॥ अर्थ - प्रत्यंत विष से भरा हुआ जैसा किपाक फल देखने में सुन्दर लगता है, खाने में मीठा, ऐसे फल को खाते ही मनुष्य का जैसे प्रारण निकल जाता है, इसी प्रकार यह संसारी मिथ्यादृष्टि जीव इस विषय कलाप के मोह से तपश्चर्या करके भुवन लोक में देव पर्याय को प्राप्त हुआ वह धरणेंद्र अपने परिवार सहित वहां प्राया और संजयंत मुनि को अपने पूर्व भव का बंधु समझकर भक्ति सहित नत मस्तक होकर नमस्कार करके वहां खड़ा हो गया । १७८ Jain Education International बिल्लोड केनैगळ वेल्कोल बिट्टरि पिडि पालं । कल्लोड मरमुं बाबितिडपड किडंबकाना ।। वे सब बदियार पातिवन् शयलो बीदेशा । पल्लवर् नडुंग प्रोड पावशा लुबंप्य बोळवान् ॥ १७६ ॥ अर्थ-तत्पश्चात् वह धरणेंद्र इधर उधर देखता है कि वहां बारण पत्थर शस्त्र आदि का ढेर लगा हुआ है तथा प्रायुध मुद्गल आदि अनेक प्रकार के शस्त्र पड़े हुए हैं। उस वे अपनी अवधि द्वारा यह सब देख कर जाना कि यह सभी विद्युद्दष्ट्र दुष्ट का कार्य है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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