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________________ मेरु मंदर पुराण वेरोंडा लाव दुडो विनयबा निड़ दोंडाल । मारिडाय निड़ दल्लान् मट्रिवन शैव दुडो ॥३०॥ अर्थ- इस जन्म में लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, व्याधि, प्राधि यह छहों अनादि काल से शत्रु के समान लगे हुए हैं। पूर्व कर्मानुसार ये साथ चले आ रहे हैं । मैंने पूर्व जन्म में उपार्जन किए हुए पाप के उदय से वे पाप जब उदय में आने पर मंत्री के साथ विरोध उत्पन्न किया । और पाप कर्म का उपशम होते ही पुनः मुझको मेरी वस्तु मिल गई है। यह सब शुभाशुभ कर्मेन्द्रिय से सारी वस्तुए प्राणी को मिलती हैं ऐसा उस भद्रमित्र ने राजा से कहा। ॥३०६॥ नीदि नोदुवान् पोनिडर नंड, सोन्न। तीदिला मोळि ये केळा दिडिरर शीय सेनन् । वेद वारिणगरणे नीदि नूल कंड वेदनोइक् । कोदिला गुरगति नानॅड. वंदन निलंदु सोन्नान् ॥३१०॥ अर्थ-राजा विचार करने लगा कि जिस प्रकार एक विद्वान पंडित बातें करता है उसी प्रकार यह भद्रमित्र निर्दोष वचन बोलता है। यह बणिक न पंडित है, न सिद्धांत शास्त्री है, फिर भी यह सभी शास्त्रों में पारंगत होने के समान वार्तालाप करता है। उच्चकूल में इसने जन्म लिया है। इस प्रकार उसके गुणों का वर्णन किया। तब भद्रमित्र कहने लगा कि मैं प्रशंसा योग्य नहीं हूं। आप सभी शास्त्रों में पारंगत, निपुण, प्रजापालक, धर्म के प्रति प्र.स्था रखने वाले, प्रजा को धर्म की ओर उत्तेजित करने वाले, धर्म में कटिबद्ध हैं, ऐसा राजा पृथ्वी पर होना कठिन है । इस प्रकार राजा के गुणानुवाद गाये ।।३१०॥ वैयगं पेरिनु पोया वाकिनन् मरणं वंदा । लुय्यला मरु देडालु पिरन् पोरुळ कुळ्ळ वयान । तय्यलाय धरम नीदि शमनिले दया बोळक्कं । वयगाम् तन्निलिदं वणिग नाय बंद वेडान् ॥३११॥ राजा मन में विचार करने लगा कि देखो मैंने कितनी वार उलट पलट करके बणिक से पूछा फिर भी वह अपने धर्म पर अडिग रहा । यदि मैं राज्य भी दे दूं तो भी वह प्रलोभन में नहीं आयेगा। यदि और भी कुछ दूतथा इतनी संपत्ति होने पर भी यह बणिक यह विचारता है कि यह मेरी नहीं है इनसे मोह करना व्यर्थ है। ऐसा विचार कर अपनी रानी से राजा कहने लगा कि हे देवी! धर्म नीति, दयाभाव और सम्यक्चारित्र यह सारी बातें बणिक में कूट २ कर भरी हुई है। यह सज्जन व सत्पुरुष है। पागल व पापी नहीं है । धर्मात्मा, श्रेष्ठिक बणिक है। न्यायोपार्जित धन पैदा करने वाला है। निर्दोष है ॥३१॥ एंडलु देविवेंड वादितन् पक्कत्तार पोल । डिन ळुवगै नेजि निगेंदन ळागनीदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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