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मेर मंदर पुराण
[ १५५ मणिइ शिरितु भूतिवैत्तन वागुमुन्ने । कुरिणइवान शैव कुट्रम तीर नी कोरिडेन ॥ बरिणइला माळर् पोल पिरन पोरुळ कोंडु वाळू।
परिणइले नरस लेंड्रान परूमरिण वैरतोळान् ॥३०६॥ मर्थ—तब वह सिंहसेन राजा बरिणक से कहने लगा कि, मापके यह रत्न इन रत्नों के ढेर में शिवभूति मंत्री ने रखे होंगे। प्रापको दुख देकर वह मंत्री महान अपराधी बन गया है, इसलिये उसी अपराध के बदले तुम अन्य २ रत्नों को भी ले लो। तब राजा की बात सुन कर बणिक कहने लगा कि अपने धर्म को छोस्कर दूसरे की वस्तु को लेकर वस्तु का अपहरण करने वाला मैं नहीं हूं ॥६॥
मणिय सुसमेल्लान पोळिन वलिदिन् वांगि । इनिल वरप्पि निड म निडिडुम पळियु मेदि ।। मिनिनु कडिदु वीयु याकैयं किळयु मोंबल ।
मन्नव पेरिय दोंड, मक्कळि पिरवि केंड्रान् ॥३०॥ अर्थ-जिस मनुष्य का मन सदैव परिशुद्ध नहीं रहता है-उस मनुष्य की वस्तु को अपहरण करने से इस जगत में उसके जोबन में अनेक प्रकार के संकट सहन करने पड़ते हैं। क्योंकि यह संपत्ति प्राक' श में बिजली की चमक के समान क्षणिक है.। राजा महाराजा के पास संपत्ति होते हुए भी वे क्षणिक संपत्ति के मोह से ही चक्रवर्ती होते हुए भी नरक में गए हैं। यह सब मोह की लीला है। संपत्ति एक स्थान पर स्थिर नहीं रहती। यह संपत्ति चेश्या के समान है जो कभी इसकी बगल में कभी उसकी बगल में जाती है । यह सब पाप पुण्य का फल है। इस कारण किसी को सुख शांति नहीं मिलती एक दिन सब को छोडकर जाना पडेगा । मोहवश मैं अन्य की संपत्ति को स्वीकार करू', यह मेरे योग्य नहीं है ॥३०॥
तानतिर कुरुत्त मंड, तन किळे कोहिर् शाल । बोनत्र छ पुक्कु निडु मेच्चले इळक्क पण्ण ॥ मानते येळिक्कुं तुइक्किल मद्रवर् कडिप याकु ।
मूनत्त नरगत्त इक्कुं पिरन् पोल्ळुवक्किन वेवे ॥३०८।। हे राजन् ! दूसरे की संपत्ति यदि मोहवश मैं लेकर जाऊंगा तो वह संपत्ति उत्पा. दन के लिए योग्य नहीं होती। वह संपत्ति अपने बंधु बांधव का स्वयं का नाश करती है। यहां तक कि अन्यायवश अन्य की संपत्ति लेने से स्वयं की पहले की संपत्ति भी नष्ट हो जाती है, और नरक में जाना पडता है ।। ३०८।।
पेरिळ विब तु पिनिपगं पिरप्पि वदिन् । मारुवान मुबु शेव विनय पळि वरुष वल्लाल् ॥
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