SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९. ] मेह मंदर पुराण मन्वयं वेतिरेग मट्र पोरट् । सोन नल्लरि विर्षय नादिइर् ॥ भिन्न मादलिर् भिन्नमुमा पोर। नन्वयं वेंडलादिय वटै चोल ॥६९८॥ __ अर्थ-पीछे कहे हुए जीवादि द्रव्य के तादात्म्य अन्वय तथा व्यतिरेक ऐसे दो प्रकार के गुण हैं । यह दोनों गुण व्यवहार की अपेक्षा से भिन्न. तथा निश्चय की अपेक्षा से अभिन्न हैं। इसी विभाव विषय को जीतने का विवेचन करूंगा। इसे सुनो ॥६६८।। माट्रि निड. पिन वोटिनु निकुंनल । सादल पटि येळं मुनर् बन वयं ॥ माट्रि निड्दु वोटिलिल्लामै यात्। बेट मै युन सि वेतिरेगमे ॥६६॥ मर्थ-प्राचार्य अन्वय, व्यतिरेक गुणों के बारे में दृष्टांत पूर्वक विवेचन करते हैं। हे किरणवेग राजा! सुनो। पन्वयगुण,व्यतिरेक गुणों को उत्पन्न करने के लिए निमित्त कारण होने से यह जीव नरकगति, देवगति, मनुष्यगति, तियंचगति इन चार गतियों में भ्रमण करता है। इसलिए यह जीव अन्वय गुणों से युक्त होकर उपादान कारण से होने वाले विभाव गुण को प्राप्त होकर इन चारों गतियों में भ्रमण करता है । जिस प्रकार सोना अन्वयगुण को प्राप्त होकर उपादान कारण होकर कुन्डल, कडा प्रादि पर्यायों में परिणमन होता है, उसी प्रकार यह जोव भी उपादान कारण को प्राप्त होकर संसार में अनेक पर्यायों को धारण करके संसार में परिभ्रमण करता है ॥६९६॥ अन्वयं व्यतिरेग अन्वयं वेतिरेगत्तैयाकला। लिनव पिर पादि ये याकलाल ॥ पोनिनपोर निद्र लवन् पय । निन्न बोई योंइंदलु मुक्कुमें ॥७००॥ अर्थ-पूर्व में कहे हुए गुण और गुणी से युक्त वह द्रव्य सदैव केवल व्यवहार नय में भिन्न होने पर भी निश्चय नय से आपस में एक रहते हैं। अपने स्वभाव को छोडकर दूसरे स्वभाव में परिणत नहीं होते। अतः यह जीवद्रव्य, ज्ञान, दर्शन, गुण से युक्त है । गुण और गुणी में प्रदेश रूप से भेद नहीं होता है। वचनों के द्वारा गुण और गुग्णी ऐसा कहा जाता है परन्तु निश्चय से नहीं है ।।७.०॥ येंद्र, मिगु नयं पोळ तम्मु । मोंड. योंड. बिट्टो रित्तिन कनू । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy