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________________ मेद मंदर पुराण समय पढे २ यह विचार करता है कि मेरे समान संसार में कोई सुखी नहीं है । “चेतोहरायुवतयः सुहृदानुकूलाः । सद्-बांधवाः प्ररणयगर्भ गिरश्च भृत्याः ॥ गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरंगाः । सम्मीलने नयनयोनंहि किंचिदस्ति ॥ अर्थ- मेरे पास मन को हरने वाली अनेक सुन्दर रानियां हैं, मित्र वर्ग सभी धनुकूल हैं, भ्रातृ वर्ग सभी अच्छे हैं, सेवक हमारी आज्ञा में सदा तैयार रहते हैं और द्वार पर हाथी, घोडे आदि वाहन गर्जना करते रहते हैं । इस प्रकार उपर्युक्त तीन चरणों की रचना शयन कक्ष में लगे हुए श्यामपट्ट पर करके राजा सो गया तत्पश्चात् कोई संस्कृत का विद्वान राजमहल में चोरी करने के लिये घुसा था उसने जब इस श्लोक को देखा तो चौथे चरण की रचना इस प्रकार की कि राजन् ! तुम्हारे नेत्रों के बन्द हो जाने पर तुम्हारा कुछ भी नहीं रह जाता। अर्थात् आँखों के मुंद जाने पर प्राणी का कुछ भी नहीं रहता । प्रातः काल राजा ने जब श्लोक के अन्तिम चरण को देखा तो उसकी आंखें खुल गई और उसने अपने धन वैभव को क्षणिक मान लिया । इस प्रकार पंचेंद्रिय विषयांध जो मनुष्य हैं उनको धर्म कर्म का विवेक नहीं रहता है । अतः वह राजा विषयभोगों में मग्न होकर अधे के समान विचारता था ।। ८१शा पोरिइन् भोगमं पुष्णि येत्तिन् वन् । रुव देंड्रना नुंब रिवमं ॥ मरुविल् गोड मट्रिले मायंद वर् । पिरवि युं मिले यॅड. पेशुमे ॥ ८१६॥ Jain Education International अर्थ संसार को उत्पन्न करने वाले इन्द्रिय विषय भोग पूर्व जन्म में उपार्जित किए हुए पुण्य पाप के फल से इस भव में सुलभता से मिलते हैं । यह ज्ञान राजा रत्नायुध को विदित नहीं था । वह अपने मन में विचार करता है कि नरक, स्वर्ग, मोक्ष प्रादि ये सब झूठे हैं। मरा हुआ मनुष्य लौटकर संसार में कभी नहीं प्राता, इसलिए पाप पुण्य कोई वस्तु नहीं पुण्य संचय करके प्रारणी देवगति को गया, स्वर्ग में गया, यह कहना सभी मूर्खपना है क्योंकि ऐसा किसी ने देखा न सुना है । ८१६ ।। [ ३३५ कद्र मादं राय काम शहवत्तिर् । पेट्र विवस मिळंक विट्ट, पोय् ॥ • मटू मिबं मेल्वर वरंतुद । सुट्ट इनरी बिट्टदोक्कुमे ॥ ६१७॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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