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________________ ॥ अष्ठम अधिकार ॥ बज्रायुध का अनुत्तर विमान में जन्म लेना प्ररस नाय नल्लरद नायु दन् । पिरस मार् कुळर् पिनय्य नारुंडु ॥ वर शै तोळवन् मगिळबं वार्तेयै । युर शवन् निनि युरगराजने ॥८१३॥ अर्थ हे धरणेंद्र सुनो! राजा रत्नायुध अपनी पटरानी सहित विषय भोगों को विष के समान समझ कर उसको त्याग दिया। इस संबंध में मैं विवेचन करूंगा। लक्ष्य पूर्वक सुनो।।१३।। वाम मेगले मैलं शायलार् । काम कोटियुट कळुमं कावला ।। सेम नल्लरं सेप्पिट्टि इंड। यामै पोलव नवल मैदुमे ॥१४॥ अर्थ-कंठ में रत्नमयो स्वर्ण मोती युक्त आभरण धारण करने वाली स्त्रियों में भनेक प्रकार के विषय भोग में लवलीन रहने वाले उस राजा से यदि कोई व्यक्ति जैन धर्म को बात कहे तो जैसे कछुवा किसी आदमी को देखते ही घबरा कर पानी में घुस जाता है, उसी प्रकार वह राजा रत्नायुध अंतःपुर में जाकर बैठ जाता था। अर्थात् उनको यदि जैन धर्म की महिमा कोई बताता तो प्रांख लाल हो जाती थी। जब तक जीव को देशनालब्धि प्राप्त नहीं होती तब तक जैन धर्म को धारण करने की रुचि उत्पन्न नहीं होती ॥८१४|| अरसु मिबं, किळयु मायुवं । विर से तारवन् वीय में नान् ।। रिर यडुत्त विप्पडि मिशंदन् । तरसु निर्प दे याम वेन्नु में ॥१५॥ अर्थ-अत्यन्त सुगंधित फूलों के हार को धारण किये हुए राजा रत्नायुध को राज सुख, बंधु, मित्र, स्त्री, पुत्र में मुझे शांति है और ये ही सदा शाश्वत रहेंगे-ऐसे यह विचार सदैव ही बने रहते थे। किन्तु यह राज संपदा, वैभव, मालखजाना, बंधु-बांधव हमेशा स्थिर रहने वाले नहीं हैं । ऐसा विचार उनको कभी नहीं होता था। भावार्थ-पंथकार कहते हैं कि इन्द्रिय सुख में मग्न हुमा जीव सदैव इसीको सुख समझता है। दूसरी बात में कोई ध्यान जाता ही नहीं है। कहा है कि एक राजा रात्रिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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