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मेरु मदर पुराण
यानिव बुरै पदर केळंद मदिदु ।
वूनमे यागिळु मुळिय बल्लनो ॥११२४।। अर्थ-देवेंद्र अपने मन में यह विचारता है कि इसी प्रकार के समवसरण की रचना करना चाहिये । कुबेर द्वारा तैयार किए हुए समवसरण को देखकर सभी लोग आश्चर्य करें ऐसा वर्णन करने में मेरी शक्ति नहीं है फिर भी मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार समवसरण का वर्णन करूंगा। सुनो! ॥११२४।।
कोसमुं कोस, मिरंडु कोसमुं। कोस नानगेट्ट. मुन्नागि रेट्ट.माय ॥ कोसमोर पत्तोडे ळोंड, मुम्मदिर् ।
कोसमो रारुपोय कोई लेदिनार् ॥११२५॥ अर्थ-उस समवसरण की दो कोस प्रमाण प्रासाद भूमि है। दो कोस विस्तार से युक्त खातिका भूमि है। चार कोस विस्तार वाली बलिभूमि है । आठ कोस विस्तार वाली उद्यान भूमि है । बारह कोस विस्तार वाली ध्वजा भूमि है । सौलह कोस वाली गृहांगण भूमि है । और महान विशाल वीथियां हैं। इस प्रकार समवसरण भूमि का उल्लंघन कर वे दोनों मेरु और मंदर कुमार भीतर रहने वाले नील नाम के मंदिर में पहुँच गये ॥११२५।।
कामुंग मुंड मे ळं. पत्तोडेळ् । कार्मुग कुरैद मुम्मविलि नोकमुं कार्मुग मीरायिर मुंड. माय पिन् ।
मरियमा लुयन निळं कळंबवे ॥११२६॥ अर्थ-उस समवसरण में रहने वाली सात भूमि एक से एक बढकर ऊंची है । बाहर से अंदर प्राते समय उदयतर वेदी दो हजार दस धनुष ऊंची है। प्रीतंकर वेदी चार हजार धनुष ऊंची है। और तीसरी कल्याण कारक नाम की वेदी छह हजार धनुष ऊंची है।
॥११२६॥ बार मळि मुळं मावर् नडंगकुं। कमिळि कवळिक्कोडि ईटमम् ।। सेर्विन् मद, मुरंत्तनन् सुंदर ।
मौरिनन् मवि यतिनै योदमे ॥११२७॥ अर्थ-उनमें नर्तन करने वाली देवाङ्गनामों की नाट्यशालाएं बनी हुई हैं । वहां पर रहने वाली ध्वजा पताकामों के स्थानों के संबंध में विवेचन किया जा चुका है। अब प्रहंत केवली भगवान के समवसरण में विराजमान लक्ष्मी मंडप का वर्णन करूंगा ॥११२७।।
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