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मेरु मंदर पुराण
सुद्र वेरुळ वेदिगं तोरणं ।
वेट्रि वेन् कोडि माळय मेळेलां ।।११२० ।।
अर्थ - यहां तक सात प्रकार के गृहांगरण भूमि में रहने वाली वस्तुओं का प्राधिक्य विशेषकर वर्णन किया गया है। उस गृहांगरण भूमि के कौने में रहने वाले स्तूप हैं। एक योजन उत्सेध से युक्त एक स्तूप है। वह स्तूप सभी भव्य जीवों को अत्यन्त सुन्दर व मनोहर दीखता है । उसके चारों प्रोर वेदी है और स्तूपों पर चारों ओर सफेद ध्वजाए हैं। और वे पुष्पों के हार मोती के हारों से युक्त है ।।११२० ||
डिपि निर् पिरपिन् मनंयुतिडें । तुडिये वेंड्र विरिमुळ विनळ ||
afsa योप्पन वैय्यग तुव इप् ।
डिपिनागुमट ळ ळबुं सोल्नुधास् ॥ ११२१॥
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अर्थ - पहले कहे हुए स्तूप के विस्तार से होकर बीच में कमती विस्तार होकर बीच में मृदंग के रूप में रह गया है। उस गृहांगरण भूमि के कोने में लोक स्तूप नाम का श्रादि स्तूप है । उसका स्वरूप आगे कहेंगे ।। ११२१ ।।
महिम ळोगमुं मंदरतयुं ।
मोत्तवं तुरक्क नर्के योप्पबुं ॥
सिद्दि शेवट्टवं सिद्धरुपियुं ।
पट्रियल कलेत्तेरुं भव्य कूडमुं ।। ११२२||
[ ४३१
अर्थ - मध्य लोक में एक स्तूप मेरु पर्वत के समान है, और स्वर्ग का स्तूप नवग्रह के समान है । तथा एक सर्वार्थ सिद्धि के समान स्तूप है । और एक राग को नाश करने वाला भव्य स्तूप है ।। ११२२ ॥
वीत शोगमु मै मै विळक्कुमेन् । ट्रोदु नामत्त वंड्रि नोंडुळ्ळवाम् ॥
काद पाद मगंड्र विल्लोंगिमे ।
ळे मिळ वळकांळू वट्ट मिगिदे ।।११२३ ॥
Nirik
अर्थ- स्वभाव से ही प्रकाशमान शोक रहित एक बोधिनाम का स्तूप है। इस प्रकार स्तूप कौने २ में रहने वाले सभी वीथियों में क्रम से है। वहां प्रदक्षिणा में आने वाले जीवों को चार भागों में से एक भाग आने जाने के रास्ते के लिए है । बाहर की भूमि से वह स्तूप एक धनुष ऊंचा है ।। ११२३ ।।
वानवर् कोन् मनत्तेनि चंदवत् । ट्रामिंग विय पुरुं तरणीं तन्मे ये ॥
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