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मेरु मंदर पुराण
[ ४३३ मकर वन् कोडियवन् ट्रन्न बेड्वन् । नगरमुं तनदिड मागनाटि योन् । पुगररु पोन्नेयिळाम पट्टामरं ।
शिगरमाम् तिरु निळं यदि शेप्पुवाम् ॥११२८॥ प्रर्थ-मकरध्वज नाम के कामदेव को जीता हा जो स्थान है वह स्थान देवों के द्वारा निर्मित है। उस स्थान के विषय में जो स्वर्ण के कमलों से बनाया है उसके सम्बन्ध में विवेचन करूगा ॥११२८॥
देवर् कोन ट्रिस दिशं कंडु सोप्पिय । मूबुलग परसर् गळादि मूदुरै ॥ मेविय विदन यान विळंब लुदु ।
नावलर नगुवदोर वाइ लागुमे ॥११२६॥ अर्थ-देवेंद्र के द्वारा एक २ दिशा में जो इस प्रकार की रचना की गई है। इसके बारे में लीन लोक के नाथ जिनेंद्र भगवान के रहने वाले श्री निलय का वर्णन किया है। वे इसका वर्णन करने में अशक्य है । फिर भी अल्प बुद्धि के अनुसार वर्णन किया है । ज्ञानी लोग देखकर इसकी हास्य न करके इसमें जो रहने वाले विषय हैं उनको ग्रहण करें ॥११२६॥
इविड मिव्वन्न मागि नंडोनि । लग्विड मम्वन्नवागि तोड्रिडु।। मिन्बड दिग्विड मळगि देंडिडि । नश्चिड तोचिड मळगि दामे ॥११३०॥
अर्थ-उस समवसरण में जाकर उस मकरध्वज नाम के कामदेव को जीतने वाले स्थान को देखकर प्रशंसा करते हुए भागे एक दूसरी भूमि में पहुँच गये , जो कि इससे भी अधिक सुन्दर थी ॥११३०॥
उच्चमे नीच माय नीच मुच्च माय । इन्वेया लोरुव नुक कियलु मार पो । लुच्चने नोचमाय नीच मुच्चमा। इच्चे इन पडियिना लेंगुस तोंड मे ॥११३१॥
मर्थ-उस मणिमय भूमि की चमक से उस भूमि का ऊंचा नीचा सम विषमपन म नहीं पड़ता था। एक मनष्य के भ्रंदर जिस प्रकार उसकी इच्छा कमती बदती हो जाती है, उसी प्रकार उस भूमि की ऊंचाई नीचाई मालूम नहीं होती थी॥११३१॥
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