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मेरु मंदर पुराण
विशेष विवेचन- गर्मी, वर्षा तथा शीतकाल में किसी भी बाधा के उत्पन्न होने पर अपने अचल ध्यान में स्थित रहने वाले तथा घबरा कर एक स्थान को छोड कर दूसरे स्थान में न जाने वाले ऐसे मुनियों के समुदाय के सामने मैं नवीन दीक्षित वामन मुनि हू । वे सम्यग्दृष्टि मुनि अपने अंदर क्या विचार करते हैं सो रत्नकरंड श्रावकाचार में कहा है कि
"दुक्खक्खयक्रम्मक्खय समाहि-मरणं च बोहिला हो य । एयं पत्थेदव्वं रण पत्थरणीय तदो अण्ण" ||
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अर्थ – “हमारे शरीर धारणादिक जन्म मरण क्षुधा तृषादिक दुःखनि को क्षय होहु, श्रात्म गुण कू नष्ट करने वाला मोहनीय ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म को क्षय होहु, तथा इस पर्याय में चार आराधना का धारण सहित समाधि मरण होहु, बोधि जो रत्न - यता का लाभ होहु । सम्यक् दृष्टि के ऐसी ही प्रार्थना करने योग्य है । इनतै अन्य इस भव में परभव में प्रार्थना करने योग्य नहीं है । संसार में परिभ्रमण करता जीव उच्चकुल नीचकुल, राज्य, ऐश्वर्य, धनाढ्यता, निर्धनता, दीनता, रोगीपना, नीरोगपना, रूपवानपना विरूपपना, बलवानपना, पण्डितपना, मूर्खपना, स्वामीपना, सेवकपना, राजापना, रङ्कपना, गुणवानपना, निर्गुणपना, अनन्तानन्त बार पाया है, पर छोडया है । तातें इस क्लेश रूप संयोग-वियोग - रूप संसार में सम्यग् दृष्टि निदान कैसे करें ? इस संसार में अनन्तपर्याय दुःख रूप पावे तदि एक पर्याय इन्द्रिय जनित सुख को पावे, फिर अनन्त बार दुःख को पावे । सो ऐसे परिवर्तन करते इन्द्रिय जनित सुख हूं अनन्त बार पाया ।
अब सम्यग्दृष्टि इन्द्रियनि के सुखकी कैसे बांछा करे है ? इस संसार में स्वयंभूरमरण. समुद्र का समस्त जल प्रमारण तो दुःख है, अर एक बालकी प्ररणी ताका अनन्त . भाग करिये तिनमें एक भाग प्रमाण इन्द्रियजनित सुख है । इसतें कैसे तृप्ति होय ? अर भोगनिका त्याग तथा इष्ट सम्पदाका संयोगका जेता सुख है तिसतें असंख्यातगुणा वियोग काल में दुःख है । अर संयोग होय ताका वियोग नियम से होयगा । जैसे शहदकरि लिप्त खड्गकी धाराकू जो जिह्वाकरि चाटे, ढाके स्पर्शमात्र मिष्टताका सुख अर जिह्वा कटि पड़े ताका महादु ख । तैसे विषयनिकें संयोग का सुख जाने । तथा जैसे किपाकफल दीखने में सुन्दर, खावनेमें मिष्ट हैं पीछे प्रारणनिका नाश करे हैं। तथा जहरते मिल्या मोदक खाने में मीठा, परन्तु परिपाक काल में प्रारणनिका नाश करने वाला है । तैसे भोग-जनित सुख | बहुरि जैसे कोऊ पुरुष कने बहुत घन होय । अल्पमोल लीया चाहें तो बहुत धनके साटे थोरा धन मिल जाय । र श्राप कने अल्प धन होय र वाका मोल बहुत चाहै तो नहीं मिलें । तैसे जो स्वयं की सम्पदा पाके योग्य पुण्यबन्ध किया होय र पीछे निदान करने अपना अधिक पुण्य होय ताकू घाति तुच्छ सम्पदा जाय पावे है, पाछे संसार परिभ्रमरण याका फल है । जैसे सुतकी लंबी डोरीकरि बंधा पक्षी दूर उडि गया हुआ उसी स्थानकू प्राप्त होय है । जातें दूरि उडि चल्या तो कहा ? पग तो सूत की डोरीतें बांधा . है, जाय नाहीं सकेगा । तैसें निदान करने वाला प्रति दूरि स्वर्गादिकमें महद्धिकदेव हुआ हू संसार ही में परिभ्रमण करेगा : देव लोक जाय करके हू निदानके प्रभावतें एकेंद्रिय तिर्यंचनि में तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंचनिमें तथा मनुष्य में श्राय, पापसंचय करि दीर्घकाल परिभ्रमरण करे है । अथवा जैसे ऋण सहित पुरुष करार करि बन्दीगृहते टिकरि अपने घर में सुख आय
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