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________________ मेर मंदर पुराण बस्या, तो हू करार पूर्ण भये फिर बंदीगृहमें जाय बसे । तैसे निदानकरि सहित पुरुष हू तप संयमते पुण्य उपजाय, स्वर्गलोक जाय करके ह प्राय पूर्ण भये स्वर्गते चय, संसारहीमें परिभ्रमण करै है। यहां ऐसा जानना जो मुनिपनामें व श्रावकपनामें मन्द-कषायके प्रभावते वा तपश्चरणके प्रभावते अहमिंद्रनिमें तथा स्वर्गमें उपजनेका पुष्यसंचय किया होय अर पाछे भोगनिकी बांछादिकरूप निदान करे तो भवनत्रिकादिक अशुभ देवनिमें जाय उपजे । पर जाके पुण्य अधिक होय अर अल्प पुण्य का फलके योग्य निदान करे तो अल्प पुण्यवाला देव मनुष्य जाय उपजै, अधिक पुण्यवाला देव मनुष्यनिमें नाहीं उपजे । जो निर्वाणका तथा स्वर्गादिकनिके सुखका देनेवाला मुनि श्रावकका उत्तमधर्म धारणकरि निदानतें बिगाडै है सो ईधनकें अथि कल्पवृक्षकू छेदे हैं । ऐसे निदानशल्यका दोष वर्णन किया । अब मायाशल्य का दोष कौन वर्णन करि सके ?मायाचारके अनेक दोष कहे ही हैं। मायाचारी का व्रत शील संयम समस्त भ्रष्ट है। जो भगवान जिनेन्द्र का प्ररूप्या धर्म धारण करि पर आत्माकू दुर्गतिनिके दुखतें रक्षा करी चाहो हो तो कोटि उपदेशनिका सार एक उपदेश यह है जो मायाशल्यकू हृदय में से निकास द्यो, यश पर धर्म दौऊनिका नाश करने वाला मायाचार त्याग, सरलता अंगीकार करो। बहुरि मिथ्यात्व है सो इस समस्त संसार परिभ्रमण का बीज है । मिथ्यात्व के प्रभाव ते अनन्तानन्त परिवर्तन किया। मिथ्यात्व विषकू उगल्यां बिना सत्य धर्म प्रवेशही नाहीं करै। मिथ्यात्वशल्य शीघ्र ही त्यागो । माया मिथ्यात्व निदान- इन तीन शल्य का अभाव हुआ बिना मुनि श्रावक का धर्म कदाचित् नाहीं होय, निःशल्य ही व्रती होय है । बहुरि दुष्ट मनुष्यनिका संगम मति करो। जिन की संगतितें पाप में ग्लानि जाति रहे, पाप में प्रवृत्ति होय तिनका प्रसंग कदाचित् मति करो । जुआरी चोर छली परस्त्री-लंपट जिह्वा-इन्द्रिय का लोलुपी, कुल के प्राचारत भ्रष्ट, विश्वासघाती. मित्रद्रोही,गुरुद्रोही अपयशके भय रहित, निर्लज्ज, पाप क्रिया में निपुण, व्यसनी, असत्यवादी असन्तोषी, अतिलोभी, अतिनिर्दयी, कर्कश परिणामी, कलहप्रिय, विसंवादी वा कुचाल प्रचण्ड परिणामी,प्रति क्रोधी, परलोक का अभाव कहने वाला नास्तिक. पाप के भयरहित, तीव मूर्छा का धारक, अभक्ष्य का भक्षक, वेश्यासक्त, मद्यपायी, नीच कर्मी इत्यादिकनि की संगति मति करो। जो श्रावक धर्म की रक्षा किया चाहो हो, जो अपना हित चाहो हो, तो अग्नि समान विनाशमान कुसंग जानि दूरत ही छांडो। जातं जैसा का संग करोगे तिस में ही प्रीति होयगी, अर प्रीति जामें होय ताका विश्वास होय । विश्वासते तन्मयता होय है । तातै जैसी संगति करोगे तैसा हो जावोगे । जाते अचेतन मृत्तिका हू संसर्गतें:सुगन्ध दुर्गन्ध होय है तो चेतन मनुष्य की संगति करि परके गुण अवगुण रूप कैसे नाहीं परिणमेगा ? जो जैसे की मित्रता करे है सो तैसा ही होय है । दुर्जन की संगति करि सज्जन हू अपनी सज्जनता छांडि दुर्जन हो जाय है । जैसे शीतल जल अग्नि की संगति से अपना शीतल स्वभाव छांडि तप्तपने में प्राप्त होय है। उत्तम पुरुष ह प्रधम की संगति पाय अधमताप्राप्त होय हैं । जैसे देवता के मस्तक चढ़नेवाली सुगध पुष्पनि की माला हू मृतक का हृदय का संसर्गकरि स्पर्शने योग्य नाहीं रहैहै । दुष्टकी संगतिते त्यागी संयमी पुरुष हू दोष सहित शंका करिये है । लोक तो परके छिद्र देखने वाले हैं, पर के दोष कहने में आसक्त हैं, जो तुम दुष्टनिकी दुराचारीनि की संगति करोगे तो तुम लोकनिदान प्राप्त होय धर्म का अपवाद करावोगे । ताते कसंग मति करो। खोटे मनुष्य की संगति ते निर्दोष ह दोषसहित मिथ्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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