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मेरु मंदर पुराण मार्गी शीघ्र होय है । जातें मिथ्यात्व कषायनिका परिचय तो अनादि काल का है और वीतरागभाव. कदाचित् कोई महा कष्टतै उपज्या सो कुसंग पाय क्षण मात्र में जाता रहेगा "
__ इस प्रकार दीर्घकाल से दीक्षा लेकर व मुनि तपस्या कर के शास्त्र समुद्र के पारंगत ऐसे मुनि का जैसा ज्ञान मेरे में कहां? इस कारण मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार उनके चरण कमल के प्रसाद से छोटा बालक जिस प्रकार महा समुद्र की उपमा अपने हाथ फैला कर बताता है उसी प्रकार मैं अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना करता है।
नल्लोरगळ पोय वळिनाल डिपोयिनालु। पोल्लांगु नीगि पुगळाइ पुण्यमुमागु॥ सोल्ला निरदं श्रुतकेवलि सेंड्र मार्ग ।
सोल्वा नेळ देर् कोरुतीमै युडाग बट्रो ॥४॥ ग्रन्थकार निर्विघ्नता से ग्रन्थ की समाप्ति की कामना करता है।
श्रेष्ठ ज्ञान से युक्त जाने वाले मार्ग से यदि अज्ञानी उनके साथ चार कदम भी चला जावे तो वह अपने दुःखों को समाप्त करके पुण्य प्राप्त करने वाली कीर्ति को प्राप्त करता है। उत्तम वचनों से युक्त परिपूर्ण ऐसे मेरु और मंदर नाम के जो दो श्रुत केवली हैं यह दोनों जिस मार्ग पर गये हैं उसी मार्ग से जाने वाले अज्ञानी भी श्रेष्ठ चारित्र मार्ग को प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार मैं अपने मन में ऐसा विचार कर के मेरु और मंदर गणधर श्रुत केवली हैं जो उनके चारित्र लिखने से मैं भी उनके समान कीर्ति को प्राप्त होकर प्रात्म कल्याण का श्रेष्ठ मार्ग आगे चल कर प्राप्त करू इस हेतु से मैं ग्रंथ की रचना प्रारम्भ कर रहा हूं। इसके प्रारम्भ करने में कोई विघ्न नहीं आएगा। क्या ऐसे महान पुरुषों के चरित्र लिखने में कभी विघ्न आयेगा? कदापि नहीं पायेगा ।
भावार्थ-ग्रन्थकार ने अपनी लघुता प्रकट करते हुए इस श्लोक में प्रतिपादित किया है कि महान गुणों से युक्त चारित्रवान ज्ञानी लोगों के साथ चार. कदम भी अज्ञानी चले तो पुण्य व कीर्ति को प्राप्त होता है और उसके सम्पूर्ण कष्ट दूर हो जाते हैं-सत्पुरुषों को संगति से क्या २ नहीं होता है । चरित्रवान पुरुष की संगति से यमपाल चाण्डाल, जम्बूकुमार प्रादि अपने कुकृत्य को छोड़कर सच्चारित्र को धारण करते हुए महान तपस्वी हो गये। महान पापी जीव भी श्रेष्ठ पुरुषों की संगति से तिर गये तो मैं भी ऐसे महान तपस्वी मेरु व मंदर नामक श्रुतकेवलियों के चरित्र का वर्णन करूंगा तो क्या मेरी भी संसार की स्थिति नहीं छूटेगी ? अवश्य छूट जावेगी। इस निमित्त से ऐसे चारित्रवान पुरुषों के चरित्र को भव्य जीवों के प्रात्म कल्याण के हेतु कहने के लिये मेरे द्वारा प्रारंभ करने वाले पुण्य के के मार्ग में क्या कभी विघ्न उपस्थित हो सकता है ? कदापि नहीं । ऐसे महान पुरुषों के चरित्र वर्णन करने से कभी कोई विघ्न हो ही नहीं सकता है। श्री पूज्यपाद प्राचार्य ने अपनी समाधि भक्ति में इस प्रकार भावना की है कि
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