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________________ मेह मंदर पुराण [११ "शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदायैः। सवृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् ।। सर्वस्यापि प्रिय-हितवचो भावना चात्मतत्त्वे । सपाता मम भव-भवे यावदेतेऽपवर्गः ।। अर्थात्-मेरे अन्दर भगवान की जो वाणी है वह सदैव भरी रहे। उनके गुण गान की स्तुति, महान पुरुषों की संगति, सदाचारवृत्ति, हमेशा साधु की संगति में रहने को भावना, गुणीजनों की कथा, दोषी जनों से मौन, सभी के साथ हित मित वचन, प्रात्म-तत्त्व में रुचि इतनी बातें हे भगवन् ! मेरे हृदय में सदैव बनी रहे। इस प्रकार मैं भी यही भावना भाता हूँ कि उन्हीं के समान मेरे अंदर भी इस पुण्य नायक मेरु और मंदर श्रुतकेवली के वर्णन करने में मेरी भावना बनी रहे। इसलिये भव्य जीव पूण्य पुरुषों की कथा का मनन करके अपने जीवन को कल्याणमय बना लेवें। ऐसी मैं इच्छा करता हूँ। मैं छद्मस्थ है, परन्तु मैं पुण्य पुरुषों की कथा काव्य रूप लिखने के लिये कटिबद्ध हूँ। ज्ञानी लोग इस कविता को पढ़ते समय इस काव्य में, लघु गुरू शब्द, तर्क, व्याकरण प्रादि की दृष्टि से काव्य को देखेंगे । इसमें कदाचित् व्याकरण की शुद्धि अंक शुद्धि, गुरू लघु आदि २ दोषों को देखकर के मेरी अवहेलना न करें। मैं मन्दबुद्धि हूँ। तर्क व्याकरण प्रादि शास्त्रों का ज्ञान मुझे न होने पर भी केवल मैं पुण्य पुरुषों के पुण्य चरित्र को लिखना प्रारम्भ कर रहा हूँ। इसलिये इसमें दोषों को न देखकर जिन महान पुरुषों का चरित्र मैं लिख रहा हूँ, उन्हीं की तरफ दृष्टि डालकर, उसमें महान पुरुषों के जो गुण हैं वह ग्रहण करें और ज्ञानी लोग मेरी भूल को न देखें। पुण्णे पोविंद किलिपोपोडिरद पोळ दिर् । पोन पोविंद किळि तन्न युं पोन्निन् वैपर् ।। पुण्मै सोल्ले पुराण पुरुळ पोदिंदाल । नन्मकन् वैकिणीनामिरंगु पडित्तो ॥५॥ अर्थ-लोक में पुराने फटे हुए मलिन कपड़े में जिस प्रकार सोने को लपेट कर रखने से कपड़ा भी सोने के साथ पूज्य हो जाता है, उसी प्रकार के पुराण पुरुषों के चरित्र को मेरी मल्प बुद्धि द्वारा कहने पर ही मेरे जैसे श्रेष्ठ तथा पवित्र हो जाते हैं। इसलिये पवित्र भाव से लिखे हुए इस चरित्र को ग्रहण करके मेरी भूल पर ध्यान न देकर इसे क्षमा करें। इस कृति को मन, वच, काय व उपयोग द्वारा जो सुनेगा उनको क्या कभी कष्ट मायेगा? कभी नहीं। भावार्थ-कवि इस श्लोक में अपनी लघुता को प्रकट करता है। जिस प्रकार पुराने मलिन कपड़े में लिपटे हुए होने के साथ कपड़ा भी पूज्य हो जाता है उसी प्रकार सज्जन चरित्रवान पुरुषों के साथ अल्पज्ञानी भी महा ज्ञानी बन जाता है। यह संगति का प्रभाव है। इसी तरह मेरे में अल्प बुद्धि होने पर भी जिस महान् पवित्र चरित्रंशाली उत्तम पुरुषों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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