________________
मेरु मंदर पुराण
[ ३२९
-
--
-
-
-
अर्थ-जीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ऐसे इन छह द्रव्यों में से जीव तो जीव द्रव्य है और बाकी पांचों अजीव द्रव्य हैं। जीव द्रव्य और पुदगल द्रव्य इन दोनों के मिलने से गमनागमन की शक्ति उत्पन्न होती है और धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य हैं सो स्थिर हैं। यह परस्पर सहकारी कारण होने से प्ररूपते हैं । व्यवहार नय से जीव
और पुद्गल द्रव्य विभाव पर्याय रूप हैं । और धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये अविकारी हैं । और उसमें पुद्गल द्रव्य वर्ण, स्पर्श, रस और गंध से युक्त हैं। उसमें जोव, अजोव, धर्म, अधर्म, प्राकाश और काल ये प्रमूर्तिक है। यह प्रत्येक द्रव्य उत्पाद व्यय ध्रौव्य से युक्त है । इस प्रकार चक्रायुध मुनि मन में भेद ज्ञान.से विचार कर कि इससे भिन्न यह प्रात्मा है । ऐसा समझ कर अपने प्रात्म-स्वरूप में मग्न हो गये ।।७८८।।
अनुविना लळक्क मूंड, कयंगिय पदेशमागु । मनुविनुक केग मागु मनंद मा काय देश । मिनला काल मंडा मेदिळि वाय नंदम् ।
परिण विला भवंग रुप्पोपाद मूर्चन निनंतान् ॥७८६॥ अर्थ-पुद्गल द्रव्य परमाणु वाले हैं। और अपने प्रदेश से तीन लोक में फैलते हैं। यदि तीन लोक में इनके नाप की जावे तो जीव, धर्म, अधर्म, इनके प्रसंख्यात परमा गु होते हैं। पुद्गल परमाणु और काल प्रदेश इनका एक प्रदेश होता है । आकाश के अनन्त प्रदेश होते हैं। यह छह द्रव्य परस्पर विरोध रहित प्रापस में मिले हुए रहते हैं । निश्चय परमार द्रव्य काल व्यवहार पर्याय की अपेक्षा से भूत, भविष्यत् और वर्तमान ऐसे काल तीन प्रकार के हैं। और उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, ये दोनों काल अनादि से चले आये हुए हैं। गर्भ, उपपाद मौर सम्मूर्छन ये तीनों जीव के जन्मस्थान कहलाते हैं। इसमें कौनसा छोडना है और कोनसा ग्रहण करना है-इन सारी बातों पर विचार करके हेय उपादेय का विचार कर जो पदार्थ, उपादेय था उसको ग्रहण कर लिया ॥७८९॥
उदयक्कि लुपशमत्तिर् केटिर् केटवियु तन् कट् । पदमोत्त परिणामत्तास पचं पावत्तै युन्नि ।। इदमुत्ति इद° पाय मिरदन तिरयन तोय ।
मद मदर् कुपायं तन्नै इद मिन्मै मनत्तुळ वैत्तान् ॥७९॥ अथं-ऐसे हेय उपादेय के बारे में जानकर उपादेय को ग्रहण कर वह मुनिराज ने २१ प्रकृतियों में से कर्म प्रकृति के उदय से सेनी पचेंद्रिय जीवों को काललब्धि के निमित्त से ७प्रकार के दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय को उपशम करके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय कर्म के क्षय और क्षयोपशम परिणाम से उत्पन्न होने से पांच प्रकार के परि. णामों को अपने मन में ध्यान करके मोक्ष सुख को प्राप्त करने में सामर्थ्य रखने वाले सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को व्यवहार और निश्चय नय के सम्बन्ध में भली भांति समझकर मोक्ष हेतु धर्मध्यान को धारण किया। ७९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org