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मेक मंदर पुराण इस प्रकार उस चक्रायुध राजा ने अपराजित मुनि से जिन दीक्षा ग्रहण की और तीनों काल अर्थात् प्रातः, मध्याह्न तथा सांयकाल में योग धारण करने वाले हो गये । वह पक्षोपवास, मासोपवास करते हुए धर्मध्यान से युक्त तपश्चरण करने लगे ।।७८४।। .
नेरिवळि येंगुम् सेल्लुमीचि नर् पचि निड। शेरिवि निर् पुरिगळारु सेरित शैयमत्तनागि ॥ येरुवर्ग काय मोवि येरुळ पुरि येडक्त्तोड़ें।
मरुतर वेरियं सिंदै वळुवर तळुवि निडान् ।।७८५॥ अर्थ-वे चक्रायुध मुनिराज अपने प्रात्म-चिंतन में समय को व्यतीत करते हुए स्पर्श, रस, गंध मादि विषयों को रोकते हुए, सम्यक्चारित्र में रत होकर षट्काय जीवों के संयम का पालन करते हुए प्रात्म गुण की वृद्धि के लिये आने वाले कर्मों का नाश करने के लिये धर्मध्यान में लीन हो गये ॥७८५।।
वेळ्कर पसियि नोइल वेंडलिर पेरामै तन्निर् । काक्षि ई लिरुत्तल पोदल् किडत्तलि लुडामै तन्निर् ॥ काक्षिई लरिविन ज्ञान मिन्मेर कलंगि चित्त । माक्षिय शलाव कत्तु परिष पन्मूड वेडान् ॥७८६॥ वेप्प, कुळिलं मासु शिर्प, तुरतुं वेजोर् । सेप्पलं कोलयुं तिल कुत्तलं तीय ऊरं॥ तुप्पुरळ वाई ना तोडचियां परिष युळ्ळिट् ।
कोप्पिला पुरत्तु निड प्रोवदु मोरंगु वेडान् ॥७८७।। अर्थ-वे मुनिराज आत्म-भावना की स्थिरता तथा सम्यकज्ञान के बल से बाईस परीषह को जीतने वाले हो गये । बाईस परीषहों के नाम इस प्रकार हैं:
(१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंश मशक (६) नग्नता (७) परति (८) स्त्री (8) निषद्या (१०) चर्या (११) शय्या (१२) आक्रोश (१३).बध (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृण स्पर्श (१८) मल (१६) सत्कार पुरस्कार (२०)प्रज्ञा (२१) प्रज्ञान (२२) प्रदर्शन । ये परीषह मोक्ष मार्ग के साधन में आने वाले कष्टों को देने वाली हैं। यह परीषह पूर्वोपाजित कर्मों के उदय से होती हैं ॥७८६॥७८७।।
चेतन मिदरमायुं शेल्वन निर्ष वायु । मेदुवि नियबि नागुं विकारियाय विकारि इडि। योदिय उरुव मागि इतरमा युलग मागि । नीवि यार पोरुळ्ग निड निल मै यै निनत्तु निडान् ।।७८८॥
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