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मेरु मंदर पुराण
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शंख नगर जाकर अपने भाई बंधनों को यहां ले पाऊ। और यहीं व्यापार को ऐसा सोचकर यहां के मंत्री सत्यघोष को मैं रत्नों की पेटी देकर अपने नगर चला गया, और वहां से वापस लौटकर मेरे कुटुम्ब आदि को यहां ले पाया। और बाद में जब मंत्री के पास रखे हुए रत्नों की पेटी मांगने गया कि मुझे मेरी पेटी वापस दे दो, मैं मेरे भाई बंधु कुटुम्ब परिवार को ले पाया हूँ तो इस पर मंत्री ने कहा कि तुम कौन हो? कहां से आये हो? मुझे तो तुमने कोई रत्नों की पेटी कभी दी नहीं ! तुम झूठे हो पागल हो? इस प्रकार बुरा भला कहकर मेरे रत्नों को उन्होंने अपहरण किया और अपने कर्मचारियों द्वारा पिटवाकर मुझे भगा दिया है। इसलिये हे इस नगर के अधिपति सिंहसेन महाराज! आपके शिवभूति मंत्री के पास मैंने मेरे रत्नों की पेटी रखी थी, वह पेटी को वापस नहीं देता है सोआप मुझे मेरे रत्नों की पेटी दिलवा दीजिये। इस प्रकार कहते हुए गली २ के कोने में जोर २ से पुकारता हुया आगे पीछे की सारी बातें बोलता हुमा रात दिन इधर उधर भ्रमण करने लगा ॥२६२ ।
तनवळी कुदन काना कन्नेनतान् शंकुद्र । मुन्निडादवने कोवित्तू र वयोर कडिप लु.॥ मिन्नन करक्कु कळ्ळर तगळं विट्टान् ।
लुन्नुवर करिय वाय पोरुळे ला मोरुडें कोंडार ॥२६३॥ अर्थ-वह शिवभूति ब्राह्मण मंत्री अपना कपट व मायाचार प्रजाजनों को प्रगट न हो-इस कारण उसने नगर के निवासियों तथा अपने कर्मचारियों को आदेश दिया कि यह भद्रमित्र वणिक महान् दुष्ट और पापी है, इसके घर जामो और इसका सारा माल लुट कर ले प्रायो। इस आदेश पर कर्मचारी आदि उस भद्रमित्र के मकान पर गये और सारा माल बहुमूल्य सामान वस्त्र प्राभूषण प्रादि सब लूट कर ले पाये ।।२६३।।
परमरिणक्किरंदु नागम् परणतयु मिळदंदे पोर । ट्र रिण किरंगु नायकन ट्रोडु पोरुळ मुळ दूं पोग । गुणमरिणइलाद कोडन कळ वनिन पुरुळ कोंडांनिन् ।
ट्ररिण नगरिलंग वाट पूलिट्ट बलमुट्रान् ॥२६४॥ अर्थ-इस बात को देखकर भद्रमित्र को मौर भी महान् दुःख हना । जिम प्रकार नाग फरिण में रत्न रखता है और वह रत्न उस सपं को मारपीट कर कोई ले जावे तो उसको कितना दुःख होता है उसी प्रकार वह भद्रमित्र वणिक अत्यंत दुखी हुना। क्योंकि भदमित्र के बहुमूल्य आभूषण, वस्त्र व रत्न चले गये तो वह रात दिन गली २ में रुदन करने लगा, पुकारने लगा ॥२६४।।
मन्नव नदनै केटु मंदिरि तन्ने कूदि । येन्निव नुरत्त वेन्न विश्व केळिवनोर पित्तन् । ट्रन्नयानरौंद दिल्लं तरुगवेन मरिणचेप्पन्ना। पिन्न पो येन्नै कळ दर्नेडिट्टान पेरिय पूसल ॥२६५।।
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