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________________ १३८ ] मेरु मंदर पुराण ~ ~ -.- -- - - - wwwwwwwwwwwww "मिथ्योपदेश-रहोम्यारव्यान-कूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः । स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्ध राज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा: ।। .. अर्थात्-झूठा उपदेश देना, स्त्री पुरुष की एकांत की बात की बात को प्रकट करना झूठे दस्तावेज प्रादि लिखना, किसी का धन अपहरण करना, हाथ चलाने आदि के द्वारा दूसरे के अभिप्राय को जानकर उसे प्रकट कर देना, चोरी करना, चोरी के लिए प्रेरणा करना, चोरी की वस्तु खरीदना, राजा की आज्ञा के विरुद्ध चलना, टैक्स वगैरह नहीं देना, देने लेने के बांट तराजू को कमती बढती रखना, बहुमूल्य वस्तु में अल्प मूल्य की वस्तु मिलाकर असली भाव से बेचना। इस प्रकार का जो उपदेश आपने दिया था कि यह सभी पाप के कारण हैं क्या तुम यह सब भूल गये ? यह सब योग्य है या अयोग्य है, तुम विचार करो। इस प्रकार मिथ्या बात करना ठीक नहीं है। ऐसा भद्रमित्र ने कहा ।। १५९ ।। २६० ॥ येंडलु मेळुवं कोयत्तेरि यरि येन प्रोडि । पोंड, मा रडित्त निडार् पुरप्पड तळ्ळ पोंविट् ॥ डंडव नडित्त शेप्पु कोंडवर कवल मुद्र। शेंड़ वन ट्रेवदोरु शिल पगल पूलिट्टान ॥२६१॥ अर्थ- इस प्रकार भद्रमित्र की बात सुनकर वह शिवभूति मंत्री प्रत्यंत क्रोधित होकर कहने लगा कि अरे धूत ! अपना मुह बंद कर, व्यर्थ क्यों बक रहा है। क्षण भर में तुझको प्राण दंड दे दूंगा। ऐसा कहकर अपने कर्मचारी को बुलाकर आज्ञा दी कि तुम इस दुष्ट को शीघ्र यहां से निकाल दो। तब कर्मचारियों ने मंत्री की आज्ञानुसार उस भद्रमित्र को मारपीट कर बाहर निकाल दिया। वह बेचारा भद्रमित्र दुखी होकर इधर उधर गलियों में घूमता फिरता कह रहा था कि ।।२६१।। शत्तिय कोड नेन्नु जातियाल् वेदि यड़ान् । वित्तत्तार पेरियन ट्र यनेंडियान मिग तेरी ॥ वैत्त वेनमरिणय कोंडु तरुगिलन मन्न केन्मो । पित्तनु मातु मेन्नै पेरु योरुळ्ळडक्कु वाने ॥२६२॥ अर्थ-मैं रत्नद्वीप में जाकर महान प्रयास के साथ व्यापार करके बहुत से रत्नों को इकट्ठा करके इस सिंहपुर नगर में पाया तब यहां के व्यापारियों ने मेरा बहुत सत्कार किया था। इस नगर के वणिक लोगों का विनय सद्गुण देखकर मै अत्यंत प्रसन्न हुमा और यहां के राजा का बडा गुणगान किया, और ऐसी भावना हुई कि इसी सिंहपुर नगर में रहकर मुझे पुन: व्यापार करना चाहिये, और यह सुना कि यहां के राजा का सत्यघोष नाम का मंत्री महान पंडित अनेक पुराणों का ज्ञाता है, प्रजाजनों का विश्वसनीय है, सद्गुणी है ! तो मैंने यह विचार किया कि जो संपत्ति मैं कमाकर लाया हूँ वह इनके पास रख दूं। और पद्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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