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________________ मेरु मंदर पुराण [ ३७५ -- - - -- - -- - - - - - - -- -- - --- - - - - - - - -- महान दुख उत्पन्न हुप्रा । और उसने पापमय संसार से डर कर अपने राजकुमार को राज्यसंपत्ति सम्हलाकर वैरागी होकर जिन दाक्षा ग्रहण करली ।।६२८॥ वलं बुरि वण्ण नारादने इना लुडंबु विट्टिट् । तिलांतव कप पुक्कान् यानव निड्र. वंदेन् । पुलंगण मेर् पुरिदु नोंद केशवन् पुक्क देश । मिलंगि पोय ईर यानं नरगिर कंडिडरै युट्न् ।।६२६॥ अर्थ-शंख वर्ण के समान वह रहने वाला नवीन दीक्षित बलदेव सम्यक्दर्शन, सम्यकज्ञान, चारित्र और तप इन चार प्रकार की आराधनानों की भावना से इस शरीर को छोडकर लांतव कल्प के विमान में जो देव हुअा था उस देव का जीव मैं ही हैं। और संजयंत मुनिके केवलज्ञान अथवा मोक्षकल्याण की पूजा करने के लिये मैं यहां आया हूँ। धरणेंद्र सुनो! धरणेंद्र ने पूछा कि आदित्यदेव क्या आप ही संजयंत मुनि के मोक्ष कल्याण की पूजा के लिए आए हो? यदि हां तो यह बताओ कि पंचेंद्रिय विषयों में लीन हुआ विभीषण नाम का वासदेव मरकर किस क्षेत्र में गया है। देव ने कहा कि मैंने अवधिज्ञान से जान लिया है वह दूसरे नरक में गया है। अब उसके नरक में से निकलने का धर्मोपदेश करूंगा सो सुनो। ॥२६॥ इति बलदेव स्वर्ग जाने वाला नवा अध्याय समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
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