SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेह मंदर पुराण [ ३८१ - अर्थ- उस नरक भूमि में इतनी उष्णता रहती है कि यदि एक लोहा का मारी गोला डाला जावे तो वह लोहे का गोला भी गल जाता है । इतनी वहां उष्णता रहती है। और उसके नीचे की भूमि महान शीत भूमि है। चौथे नरक में उष्णता रहती है । पांचवे नरक में शीत उष्ण दोनों रहती हैं। छठे और सातवें नरक में केवल शीत ही रहता है। ||९४५॥ बडिय बदक्कु मार विगुवन येटु मेय्यिन् ।। मान विल दोंड.नम्मै मार मुन शेय्य वंदन ॥ कीडिय पावत्तालेळ नरगत्तु मिरट्टि कोळ कोळ । मंडत्ति मरुगित्ति में मरुगु तोमि विनंगळाले ॥६४६॥ अर्थ-नरक में नारकी जीवों की इच्छा के अनुकूल कोई वस्तु नहीं मिलती है। बल्कि उनकी इच्छा के विपरीत ही मिलती है। आठ प्रकार के वैक्रियिक उन नारकियों को दुख देते हैं। वहां के नारकी जीव पाप कर्म के किये हुए कार्यों को याद दिला कर परस्पर कलह निर्माण कर पुराने नारकी उनका तमाशा देखने खड़े हो जाते हैं। उनके किये कर्म के अनुसार इस प्रकार दुख का अनुभव करते हैं ।।६४६।। ईयल्वि नाम तुंब मेंड, मेळ नरगत्तु नींगा। मयरिगळ शैव वेल्लां वंदु वंदुट, नींगुम् ॥ पुय लुरु तरक्क वंदे पुलसु तेन कळ ळं युंडा । लुयहला वगैर शंव युरुक्कि वाय पैगिंडारे ।।९४७॥ अर्थ-हे नारकी! पूर्वजन्म में तू विभीषण नाम का राजा था। तुने रागद्वेष द्वारा पाप संचय करके इस नरक में जन्म लिया है। इसलिये हे नारकी ! इन सात नरकों के दुखों से ये नारकी जीव मुक्त नहीं होते हैं । जितना २ उन्होंने बांधा है उतना २ भोगना पडेगा । पूर्व जन्म में मद्य, मांस, मधु के सेवन करने के फल से इस नरक में पैदा होने वाले जीवों को पुराने नारकी जीव अत्यन्त घोर कष्ट न वेदनाएं देते हैं ।।९४७॥ परमरि वडक्क मान्म कुडि पिरप्पडिय वंदिर् । पिरर मन नलत्तिर् शेरंदार पेरळर् कुंट्ट तन्निन् । मुरग दुरुगं सेप्पु पावै ये मयंग मूचित् । परिवळिदलं वादा तरद गिडार्ग ळया ॥६४८॥ - अर्थ हे नारकी सुनो! ज्ञान, संयम, उत्तम कुल, उत्तम जाति को नाश करके दूसरे की स्त्रियों के साथ भोग भोगने से उस पाप के फल से यह पाप के कारण लोहे के सभ को गरमकर उससे मालिंगन कराते हैं। उसके दुख के कारण वह महान शोक करता है। ॥४८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002717
Book TitleMeru Mandar Purana
Original Sutra AuthorVamanacharya
AuthorDeshbhushan Aacharya
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages568
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy